Friday 15 August 2014

वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
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खुले आसमान के नीचे
एक हुजूम इकट्ठा था
तन जड़ था, मन था आंदोलित
ठंडी हवा में ओस की बूंदों को सुखाते हुए
कभी आपस में , कभी खुद से
कयास लगाते हुए
चाय की चुस्कियों के बीच
जगी आस पर
पड़ी गर्द को हटाते हुए
विश्वास , अविश्वास के हिंडोले में
अनुत्तरित प्रश्न का हल ढून्ढ रहे हैं
दूसरी तरफ हमारे रहनुमा
विशालकाय ऊँचे वातानुकूलित भवन में
अपनी विद्वता , यथा शक्ति के अनुरूप
शब्द बाण चलाते हुए
कौन से स्वार्थों की पूर्ति के लिए
अपने गिरेबान को छोड़ कर
एक दूसरे के नश्तर लगाते हुए
कभी धीरे कभी जोर से चिल्लाते हैं
वक्त आने पर बाहर निकल आते हैं
भ्रष्टाचार, शिष्टाचार का कफ़न ओढ़े
उसको दफन करने की कवायदें जारी
पहले भी हुईं थी आज भी
क्या जीत होगी हमारी
मन के किसी अँधेरे कोने में
आशा की किरण कौंधती है
घने अंधरे में जैसे जुगनू
मंजिल का पता देती है
भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाये हुए
जानते थे हश्र फिर भी है इंतजार
कोई मसीहा हमें दिला सके निज़ात
स्वराज तो मिला पर नहीं मिला सुराज
शायद ये भारत का दूसरा गाँधी दिला सके
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

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