Friday 15 August 2014

सेनानी

सेनानी
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बचपन बीता खेलों में
माँ के सुन्दर सुन्दर गीतों में
मन मयूर मचलता फिरता गलियन में 
भौंरा बन मंडराता छुप जाता कलियन में
गावों की नागिन सी पग डंडियाँ
बलखाती जा मिली जब हसीं शहरों से
प्रेम रंग में डूब गया जा टकराया लहरों से
कुछ मीत यहाँ कुछ मीत वहां
कुछ साथ रहे कुछ बिछड गए
हमने देखा उसने पहचाना
वादा था जीवन साथ निभाना
वादे करते वो आईने से
हाथ लगे और टूट गए
खट्टी मीठी यादों के सुर
पैरों में जैसे बंधे नुपुर
लय ताल न रही बिखर गए
जीवन के नित रंग नए -नए
डूबा न गम के अंधेरों में
प्रेम की फितरत पहचानी
सुने थे किस्से हीर मजनू के
मिली न वो हुई अनजानी
ये प्रेम पुष्प जो खिलता है
सच्चे ह्रदय से निकलता है
सच्चा है केवल माँ का प्रेम
काहे दूजे की दुनिया दीवानी
करलो न अपने देश से प्रेम
तुम बन जाओ एक सेनानी.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

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