Tuesday 19 August 2014

दुनिया रंग रंगीली बाबा (संशोधित)

दुनिया  रंग रंगीली बाबा (संशोधित)
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दुनिया  रंग रंगीली बाबा
किस्से इसके   सुनता हूँ
अंगडाई  ले  उगता सूरज 
पथ अपना मैं   चुनता हूँ 
काली भूरी मिटटी नीचे 
बैठी गिलहरी नैना  मीचे 
हरी घास  अम्बर है   नीला
लाल गुलाब गेंदा पीला
बाला ओढ़े धानी चुनरिया
सांवरा मोरा  किशन  कन्हैया
मन मन सुमिरन करता  हूँ
दुनिया  रंग रंगीली बाबा
किस्से इसके   सुनता हूँ
रिश्तों के भी रंग अनोखे
एक दूजे को  देते  धोखे
भाई बहन क्या चाचा  नाना
रिश्ते को बस चादर माना 
जिसने दिया सुन्दर संसार 
पूत दिखाता उसको द्वार 
देख दशा  सर धुनता हूँ
दुनिया  रंग रंगीली बाबा
किस्से इसके   सुनता हूँ
इन्द्र धनुष की छटा निराली
छायी घटा   घनी  हरियाली
गरजत मेघ घटा घनघोर
मोर  पपीहा मचावत शोर
कोयलिया अमराई   कूके
मन ही मन   जियरा  हूके
तन्हाई में घुलता  हूँ
दुनिया  रंग रंगीली बाबा
किस्से इसके   सुनता हूँ
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 
१९-०८-२०१४ 

Friday 15 August 2014

युवा भारत

युवा भारत 
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उमंग से भरे चेहरे 
पल होंगे तभी सुनहरे 
मिले दिशा जब उस ओर 
होती है जिधर से भोर
खिलती कली खिलती धूप
बहती नदी खिलता रूप
उन्मुक्त हो गगन उड़ान
नारी स्वयं की पहचान
सफल होय जीवन अपना
शेष रहे न कोई सपना
गीत मिल वो गुनगुनाएं
आओ सब स्वर्ग बनायें
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भारत का भविष्य बनाओ

भारत का भविष्य बनाओ
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वे सपनो के सौदागर हैं
सपने हमें दिखाते हैं
लाख सही हम होशियार
झांसे में फिर भी आ जाते हैं
वादा तो करते हैं अनेकों
सब्जबाग दिखलाते हैं
ये करूंगा वो करूंगा
सबके दारुण दुःख हरूँगा
ऐसा आश्वासन दे हमें
शवासन में पहुंचाते हैं
धर्म, जाति और छेत्रवाद के दर्पण में
अपना रूप दिखाते हैं
जो हम कभी नहीं थे बंटे हुए
अब आपस में लड़ खून बहाते हैं
खेलें खेल फकीरों का वे
मकड़ जाल बिछाते हैं
गरीबी दूर करेंगे हम
गरीबों को ही मिटाते हैं
बी पी एल की लाइन हटा कर
जनहित में एफ डी आई लाते हैं
भ्रष्टाचार करेंगे दूर कह
भ्रष्टाचार बढ़ाते हैं
नहीं भ्रष्ट हैं कह कर भी
जेलों में जाते हैं
कृषि नीति को देंगे बढ़ावा
उपज मूल्य से कम पर बिकवाते हैं
किसान करता आत्मदाह
हा हा कर शोर मचाते हैं
शिक्षक नहीं हैं विद्यालयों में
शिक्षा किसे दिलाते हैं
जन्मती बच्चा सड़कों पे
जननी सुरक्षा योजना चलाते हैं
आज बनी और कल टूटी
ऐसी सड़क बनवाते हैं
चलना दूभर हो गया सड़क पर
गलियारे में चलवाते हैं
एल पी होती दवा बडन को
निर्धन लाइन लगाते हैं
बिकता नहीं जो दूसरे देशों में
आयात उसका करवाते हैं
लाभ योजना का नहीं पहुँचता
बच्चे बूढ़े औ नवजवानों को
खुद हाशिये पर पड़े रहो
छकने दो मस्तानों को
उनकी मस्ती का आलम देख कर
हम भी बहुत मस्ताते हैं
रोना फिर किस बात का भैया
नयन होते भी दृष्टिबाधित हो जाते हैं
बहुत सी लिया बहुत पी लिया
अब तुम्हारी बारी है
सपने देखो इंकार नहीं
ये उन्नत पथ के प्रभारी हैं
जो गलती की अब तक
उसे न फिर दोहराना
अवसर आये जब मत देने का
तुम घर भर सब जाना
सावधान रहना इन सौदागरों से
भूल न होने पाए
योग्य पाओ जिन्हें तुम
सर माथे बैठाओ
अपनी तो बीत चुकी अब
भारत का भविष्य बनाओ
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भारतीय किसान

भारतीय किसान
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जय जवान जय किसान
जग का नारा झूंठा
भाग्य किसान कैसा तेरा
प्रभू भी तुझसे रूठा
लेकर हल खेत में
नंगे पाँव तू जाए
मखमली कालीन पे
वणिक विश्राम पाए
भरता सगरे जग का पेट
खुद है भूखा सोता
बिके फसल तेरी जब
कर्जा कम न होता
हाय रे किस्मत तेरी
कैसा भाग्य अनूठा
जय जवान जय किसान
जग का नारा झूंठा
देता अपना खून पसीना
इक दाना तब बनता
बाजार जाये जब फसल
भाव न पूरा मिलता
उधार ले खाद और पानी
बीज जमाए न जमता
कृषि रक्षा उपकरणों में
काला धंधा है चलता
व्यापारी और सरकार ने
आपस में है रिश्ता गूंठा
जय जवान जय किसान
जग का नारा झूंठा
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

धर्म अधर्म

धर्म अधर्म
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धर्म अधर्म
देशकाल की धुरी पर
नर्तन करता हुआ
ज्ञानियों / अज्ञानियों
की गोद में
पल पल मचलता
रंग बदलता
कुछ न कुछ कहता है
युग हो कोई
नयी बात नहीं
परोक्ष / अपरोक्ष
दिल के किसी कोने में
रावण रहता है
विष वमन
घायल तन मन
चिंतन मनन
जन जन छलता है
न कर मन मलिन
न हो तू उदास
रख द्रढ़ विश्वास
अत्याचारों की
जब जब अति होती है
हरी भरी वसुंधरा
पापों से रोती है
होता कोई अवतार
अधर्म पर धर्म की
विजय होती है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

मेरे वतन

मेरे वतन
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देश खड़ा चौराहे पर
मुखिया करते हैं मक्कर
घर घुस हमको मार रहे 
प्रेम से बोलते उन्हें तस्कर
सांझ सवेरे युगल गीत सुन
कायर अरि प्रतिदिन बहक रहा
मत टोक मुझे मत रोक मुझे
अंगार ह्रदय में दहक रहा
पिया दूध माँ तेरा हमने
अमृत, वो नही था पानी
आकर तुझको आँख दिखाये
जियूं में व्यर्थ ऐसी जवानी
नभ में तिरंगा फहरेगा
माँ न कर तू दिल मे मलाल
भले शीश गिरे धरती पर
धरा रक्त से हो जाय लाल
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

आजादी का मतलब

आजादी का मतलब
रामगढ़ के जमींदार ठाकुर दानवीर सिंह जैसा उनका नाम था उसी के अनुसार उनका चरित्र एवं व्यवहार था। गरीब कन्याओं के विवाह में मदद करना, किसान की फसल नष्ट होने पर उसके परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी उठाना या कोई भी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम हो तो उसमें अपना पूरा सहयोग देना उनकी प्राथमिकता थी। अतिथियों का स्वागत करने में तो उनका कोई सानी नही था। अस्पताल, धर्मशाला, विद्यालय उनके द्वारा बनवाये गये साथ ही पशुओं के लिये चारागाह इत्यादि की व्यवस्था भी थी। गरीब विद्यार्थियों के लिये प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा के लिये वे भरपूर मदद करते थे। प्रत्येक धर्म एवं प्रत्येक जाति के प्रति वे सम भाव रखते थे। जितना स्नेह वे अपने क्षेत्र के नागरिकों से रखते थे उससे ज्यादा उनका सम्मान वहाँ के नागरिक करते थे, धरती के भगवान के रुप में पूजे जाते थे।
ठाकुर दानवीर सिंह के चार पुत्र थे। वे भी इन्हीं गुणों से परिपूर्ण थे। ज्यों ज्यों पुत्र शिक्षा प्राप्त करते गये धीरे धीरे समय आने पर चारों पुत्रों का विवाह कर दिया। उनके तीन पुत्रों के प्रत्येक के यहा पुत्रियों ने जन्म लिया परन्तु सबसे छोटे ठाकुर इन्द्रजीत सिंह इस सुख से वंचित रहे। आशा निराशा के बीच जीवन व्यतीत करते रहे। ईश्वर कृपा हुई तो विवाह के बारह वर्ष बीतने के बाद एक पुत्र ने जन्म लिया। परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई। इसका नाम राघव रखा गया।
पूरे परिवार में एक मात्र यही पुत्र था . ठाकुर साहब एवं परिवार के लोग शिक्षा का महत्व जानते थे तो आपसी राय के अनुसार ठाकुर इन्द्रजीत सिंह के लिये पास के शहर वैभव नगर में एक आलीशान भवन की व्यवस्था करते हुए भेज दिया गया।
पूरे परिवार में इकलौता लड़का होने के नाते पूरा परिवार का प्यार और दुलार उसे प्राप्त था। ऐसा नही था कि लड़का होने के नाते उसकी चचेरी बहनों से ज्यादा प्यार, दुलार व सम्मान उसे मिलता हो बल्कि उसकी बहनो को भी वही प्यार, दुलार व सम्मान उसके माता पिता देते थे जितना कि राघव को। ठाकुर परिवार ने मात्र शिक्षा ही नही पायी थी बल्कि वे वास्तविक रुप से शिक्षित थे।
बडे़ लाड़ प्यार से राघव का पालन किया जा रहा था। धीरे-धीरे समय बीतता गया और राघव भी बड़ा होता गया। इसके माता पिता कभी-कभी राघव को देखते और बैचेन हो जाते थे कि जैसी चंचलता बच्चों में होती है वैसी चंचलता राघव में नही थी। वे इसका कारण भी ढूँढने का प्रयास करते। फिर सोचते कि चलो आगे चलकर जब यह और बड़ा हो जायेगा तो शायद इसमें परिवर्तन आ जाये। फिर वे कर भी क्या सकते थे।
राघव चंचल तो नही था परन्तु तीव्र बुद्धि का स्वामी था। बचपन से उसमें एक शौक था अपने बगिया में लगे पौधों को पानी देने, पढ़ाई के बाद वह बाहर के बच्चों के साथ न खेलकर अपनी बगिया में चला जाता। एक-एक पौधे के पास जा कर उसमें खिले फूलों को निहारता रहता। जिन पौधों में फूल नही खिलते उनके विन्यास को घण्टों एक टक निहारता रहता। पेड़ के नीचे काफी देर तक बैठना, आसमान की ओर टकटकी लगाये निहारना। पेड़ से उतरती, चढ़ती गिलहरी को देखना, उसके पीछे भागना, तितलियों को पकड़ना फिर उसे शीशी में डालना। बगिया में विभिन्न प्रकार की चिडि़यां भी आ कर बैठती थीं। वो उनको खाने के लिये दाने डालता। पानी पीने के लिये बर्तन भी रखवा दिया था। चिडि़यां उसमें पानी पीतीं, चोंच से अपने मुँह को पानी में भिगोती, उसमें नहाती फिर जब वे अपने मुँह या शरीर को झटकतीं और पानी की बूँदें छितरतीं तो राघव को बहुत अच्छा लगता था। वैसे तो वह यदा कदा ही मुस्कराया हो परन्तु अपनी बगिया में जाते ही उसके मन की बगिया खिल जाती थी। इसको देख कर उसके माँ-बाप को भी काफी सन्तोष मिलता था। ऐसा ही वह अपने विद्यालय में भी करता था। अपने सहपाठियों के साथ भी वह ज्यादा घुला मिला नही था। उसका होम वर्क हमेशा पूरा रहता था तथा कक्षा में भी एक अनुशासित छात्र की तरह था। प्रश्न पूंछे जाने पर सदैव सही उत्तर देता था। उसके शिक्षक भी उससे प्रसन्न रहते थे तथा कक्षा के अन्य विद्यार्थियों को भी राघव की तरह बनने की प्रेरणा देते थे।
एक दिन राघव अपने मित्र के यहाँ उसकी जन्मदिन की पार्टी में गया। वहाँ उसने देखा की उसके यहाँ पिंजड़ों में तोते, कबूतर, मैना, बटेर, कई प्रकार की रंग बिरंगी चिडियाँ बाडे़ में कूदते खरगोश थे। उसका मन पार्टी में न लग कर बार इन्ही पक्षियों, एक्वेरियम की ओर दौड़ जाता था। काफी अनमने मन से राघव जब अपने घर लौटा तो राघव की माता आनन्दी ने उसको प्यार से अपनी गोद में ले कर पूंछा। राघव बोला मा नमन के घर पर बड़े सुन्दर सुन्दर पक्षी हैं, चिडि़यां है, खरगोश हैं, मछलियां हैं। मेरा मन उसी में लगा है। अपने लाड़ले पुत्र की इच्छा को जानकर आनन्दी ने शाम को अपने पति से राघव की इच्छा को व्यक्त किया। राघव की इच्छा के अनुरुप अगले दिन बाजार से सारी व्यवस्था कर दी। राघव का हृदय प्रसन्नता से भर गया।
समय बीतता गया। राघव दसवीं कक्षा में पहुँच गया। ठाकुर परिवार में ईश्वर कृपा से सब अच्छा चल रहा था। जैसा कि शहर की भव्य कालोनी के निवासी अपने पड़ोसियों को भी नही पहचानते। कारण चाहें जो हो या तो दूर से आकर बसे हों, व्यस्त जीवन, समय का अभाव या अपने पद वैभव का घमण्ड हो परन्तु ठाकुर इन्द्रजीत सिंह एवं इनके परिवार के सदस्यों का वैभवनगर में रहने वालों से अच्छी जान पहचान एवं घरेलू सम्बन्ध थे। इसका मुख्य कारण था कि इस परिवार ने अपने पिता ठाकुर दानवीर सिंह द्वारा दिये गये संस्कारों को मूर्त रुप दिया था।
दीवाली की शाम को राघव भवन में कोहराम मचा था। और क्यों न मचे, राघव घर से कोचिंग पढ़ने गया था और चार घण्टे से उपर का समय बीत गया था राघव कोचिंग से घर नही लौटा और न ही कोई सूचना ही मिली कि वह कहाँ है। आस पास पता किया गया, कोचिंग में पता किया गया पता चला कि कोचिंग आया था और कोचिंग से समय पर ही घर जाने को निकला था। उसके मित्रों के यहाँ भी पता किया गया। राघव का कहीं पता नही चला। रामगढ़ में भी खबर की गई, वहाँ भी उसका पता नही चला। राघव भवन रामगढ़ एवं वैभव नगर के निवासियों से भर गया। हर एक दुःखी एवं चिंतित। आनन्दी, माँ का हृदय, उसकी पीड़ा, अकथनीय, केवल एक माँ ही माँ की पीड़ा को समझ सकती है, दूसरा कोई नही। हाल बेहाल, बस नजर दरवाजे पर, हर आने जाने वाले से एक ही प्रश्न पता चला, कहाँ है राघव । एक फोन, बीस लाख की फिरौती, पुलिस को न बताने, चालाकी न बरतने की धमकी, उसका परिणाम। राघव का अपहरण हो गया। दीवाली की अमावस ठाकुर परिवार की अमावस हो गयी। कौन ले गया राघव को, किसी से दुष्मनी नही, किसी को सताया नही, सभी के लिये शुभेच्छा, सभी से स्नेह, फिर कौन और क्यों क्या पैसा। वैभव नगर जो दीवाली में दुल्हन सा सजता था आज घनघोर अन्धेरे की चादर ओढे़ था। असमंजस की स्थिति क्या करें और क्या न करें। पुलिस की सहायता लेते हैं तो कहीं राघव को खोना न पडे़। अज्ञात भय। भविष्य अंधकारमय। आशा निराशा के हिंडोले पर विचारों का प्रवाह। पर यह बात कब तक छुपती। कोई सामान्य आदमी तो थे नही, ठाकुर साहब। स्थानीय पुलिस सतर्क। पूँछताछ जारी। अनुमान अनुमान अनुमान। कोई परिणाम नही। रात बीती, दिन बीता, दो दिन बीते। अपहरणकर्ताओं का फोन। वही चेतावनी। राघव की बात ठाकुर इन्द्रजीत सिंह से। आशा का दीप जलता, बुझता। राघव भवन में रहने वाले सारे सदस्य भी मौजूद। किस पर शक किया जाय, किस पर न किया जाय। सभी वर्षो से इस परिवार से जुडे़ थे। नौकरों के भी घर परिवार और उनके आचरण से भली भाँति भिज्ञ थे। फिर कौन अनुत्तरित प्रश्न । अचानक ध्यान आता है कि एक सप्ताह पहले नौकर धनुआ का भतीजा गांव से आया था परन्तु वही एक शख्स ऐसा था जो दीवाली की शाम से गायब था परन्तु उसकी ओर किसी का ध्यान नही गया। खोज की दिशा बदली। पुलिस सर्विलांस तेज, प्रत्येक पर निगाह रखे हुए, गोपनीय तरीके से तैयारी और सफलता।
अपराधी धनुआ का भतीजा और उसके चार साथी पुलिस गिरफ्त में। हर्ष की लहर घर परिवार और नगर में। राघव अपने माँ के आँचल में ।
जैसे ही राघव घर वापस लौटा। थका हारा, बुरे हाल पर वह सीधा अपनी माँ के पास पहुंचा , लिपट गया और किसी से बात न कर अपनी माँ की उंगली को पकड़ कर अपनी बगिया में ले गया जहाँ सारे पक्षी और पशु पिंजडे़ में बन्द थे। बगिया में पहुच कर उसने पिंजरे खोल दिये चिडि़यों, पक्षियों को उड़ा दिया। पालतू खरगोश व दूसरे कई जानवरों को उनके स्थान पर पहुंचाने के लिये अपनी माँ से कहा। आनन्दी ने जब इसका कारण जानना चाहा और कहा ये तो तुमको बहुत प्यारे थे। अब इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था जो तुम सीधे बगिया में आकर इनको उड़ा दिया। कुछ दिन बाद तुम फिर इन्हें लाने को कहोगे।
राघव ने अपने अपहरण की कथा बताते हुए कहा कि माँ इन दिनों मैं किस दशा में रहा तुम जानोगी तो बहुत कष्ट होगा। कहाँ कहाँ नही भटकाया, रस्सी में जकड़ा रहा। मुँह कपडे़ से ढंका रहा। भूख प्यास, यातनाऐं सहनी पड़ी। कभी इस शहर, कभी उस गली, जीवन शेष रहेगा या नही। मानसिक यंत्रणा। क्या-क्या नही हुआ माँ । इनका स्थान यहाँ नही है।
मैं नादान था। आप समझाती मुझे तो शायद मैं ऐसा न करता। मैंने इनको आजाद कर दिया है। माँ मैं जान गया हॅू आजादी का मतलब।
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

आया हूँ मै देर से,

आया हूँ मै देर से, भारी सर पर भार
वंदन माँ का मैं करूँ, मानू कभी न हार
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

स्वतंत्रता दिवस

वंदे मातरम 
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वंदे मातरम . 
धन्य धरा भारत की जहाँ पग पग लगते मेले 
उड़े अबीर गुलाल हवा में सब मिल गोद खेले
तिहुँ ओर घिरी जल से धरती हिमालय बना प्रहरी 
सूरज सबसे पहले उग कर बिखेरे छटा सुनहरी 
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सब भाई चारा निभाते 
होली ईद हो या दिवाली संग मिल पर्व मनाते
सुखदेव सुभाष भगत सिंह वीर अमर बलिदानी
रिक्त नहीं धरती वीरों से बच्चा बच्चा दे कुर्बानी
बलिदानी वीरों को सब जन श्रद्धा सुमन चढायें
भूलें न कभी भी उनको मिल आजादी पर्व  मनायें

धर्म जाति का नही बंधन एक आवाज पर  आते 
अभिनंदन एक दूजे का करते वंदे मातरम गाते 
वंदे मातरम .
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

प्रहार

प्रहार
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दहक उठे अंगारे धरती हुई रक्त से फिर पग पग लाल
जूझ पड़े वीर बाँकुरे झुके नहीं हँस कटा दिए निज भाल
माँ के लहराते आँचल में कायर अरि कंटक नित फंसाते 
धन्य है भारत वीर भूमि जहाँ बलिदानी पलकन चुनते जाते
अरि मर्दन करने को खड़े रहते सीमा पर प्रहरी सीना ताने
हर बार लड़े हर बार मिटे हश्र उनका ये सारी दुनिया जाने
झूठ नही अपनी धरती सिंचित है सिद्धांत बुद्ध नेहरु गांधी से
ख़ामोशी से मृत्यु बेहतर है लाभ क्या नित मांग उजड़ वाने से
सोचो न समझो न अब बढ़ने दो वीरों को रोको न उनके पग
लहू से मांग सजे शमशीरों की प्यास बुझे सबक ले सारा जग
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

आग

आग 
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आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई 
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
प्यारा कितना देश था भारत
सारा जग करता था आरत
सत्ता की खातिर देश को बांटा
जो मिला उसे एक दूजे ने काटा
भाइयों में खूब जंग करायी
आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
हिन्दू बांटे मुस्लिम बाटें
पग पग पर बोये कांटे
बहा लहू धरती पे जिनका
दोष बता क्या था उनका
तूने मेहँदी उससे रचायी
आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
मंदिर बांटा मस्जिद बांटा
जाति धर्म में देश को काटा
गुरुद्वारा भी बच न पाया
पड़ा वहां आतंक का साया
भयभीत हुए ईसाई भाई
आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
वोट मांगने जब थे आये
लगते थे दूधों नहाये
शालीनता का किये वरन
पकडे तुमने जनता के चरन
कुर्सी संग करी सगाई
आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
वादा एक पूरा किया न तूने
महंगाई ग्राफ लगा आसमां छूने
गृह उद्द्योग पनप न पाए
घने हो गए उनपे साये
ऊपर से ले आये एफ डी आई
आरक्षण की नेता तुमने
ये कैसी आग लगाई
मिल जुल संग जो साथ रहे
दुश्मन हो गए भाई
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भारत का भविष्य बनाना है.

भारत का भविष्य बनाना है.
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जहाँ में फैली भूख गरीबी 
भ्रष्टाचार एक महामारी है 
फलता फूलता था धर्म जहाँ 
वहां आन बसे व्यभिचारी हैं
सरे बाजार लुटती अस्मत अब
लूट घसीट के ये बड़े पुजारी हैं
छीन निवाला भरें पेट आपना
न कोई चिंता न शर्मसारी है
जिस कोख से इनने जनम लिया
जिस धरती ने पोसा पाला है
क्यों भूल गए ये माँ का ऋण
दुष्कर्मों से मुंह किया क्यों काला है
नोच रहे जन जन का तन श्वेत वस्त्र
मीठी वाणी पीछे पीठ भोंकते भाला हैं
रोये शिशु चाहें सिसके नर नारी अब
अंक में साकी अधरों से लगी जो हाला है
अपना दोष न देखे हम
धरम धरम चिल्लाते हैं
दूहें चलनी में अपने करम
दोषी क्यों उन्हें ठहराते हैं
आदत जो पड़ी है मांगन की
भिखारी बन दर दर भटकते हैं
ली है हाथों में खुद बैसाखी
जहाँ में बने अपाहिज फिरते हैं
बंद आँखों में खाली देखते सपना
भूल तुम्हारी ये बड़ी भारी है
जग जूठा झूठे नाते बंधन
इस धरा पर न कोई अपना हैं
मसीहा तो कब का दफन हो चुका
मगर मसीहा अब भी यहाँ फिरते हैं
करेंगे उद्दधार तुम्हारा हम
आओ शरण मेरी का दम भी भरते हैं
बात दीगर ये जानो अब तुम
बदले रूप में हाजिर मौत के मसीहा हैं
सोये पड़े क्यूँ जागो तुम अब
तुम्ही में बसे दुर्गा राम और कन्हैया हैं
खुद अपने मसीहा तुम हो प्यारे
आये कौन जो तेरी किस्मत संवारे
सारी कायनात तो तेरी है
समेट ले प्यार से बाँहों में
सूनी निगाहे तेरी पगले फिर
आसमान को क्यों तरसती है
बन काल करो अब प्रबल प्रहार
टूट पड़ो अब तुम्हारी बारी है
शीतल करो उस आग को अपनी
नैनों से तेरी बरसों से बरसती है,
स्वराज तो हमको मिल चुका
सुराज तुम्हे अब लाना है
वीर शहीदों की क़ुरबानी पर
भारत का भविष्य बनाना है.
जय हिंद. वन्दे मातरम्.

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

वतन के लिए

वतन के लिए
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भुजंग तुम 
वतन के लिए 
व्याल हम 
वतन के लिए
कलंक तुम
वतन के लिए
तिलक हम
वतन के लिए
दुश्मन हो
वतन के लिए
ढाल हम
वतन के लिए
हार तुम
वतन के लिए
जीत हम
वतन के लिए
जीना है
वतन के लिए
मरना है
वतन के लिए
शांति है
वतन के लिए
क्रांति है
वतन के लिए
हम एक हैं
वतन के लिए
राजगुरु भगत सुखदेव है
वतन के लिए
आजाद थे आजाद है आजाद रहेंगे
वतन के लिए
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

शहीद दिवस

राष्ट्र धर्म राष्ट्र चेतना
की सुधि किन्हें कब आती है
घर की देहरी पर चुपके से वो
जलते दीपक को आँचल उढ़ाती है
कुछ करते नमन शहीदों को
कुछ घर में ही रह जाते हैं
भूले भटके यदा कदा
वीरों के गीत सुनाते हैं
करते रक्षा देश की जो
देते अपनी कुर्बानी
बहाते लहू जिनके लिए
भूल अपनी जवानी
टूटे सपने बुनते अपने
घुट घुट कर मर जाते हैं
सूनी गोद उजड़ी मांग
रक्षा बंधन कैसे मनाते हैं
होली मनाते दीवाली मनाते
दुनिया का हर पर्व मनाते हो
मनाते जैसा प्रेम दिवस
शहीद दिवस मनाते हो ?
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

ये भारत देश हमार है

ये भारत देश हमार है
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शस्य श्यामला धरती अपनी
भाल हिमालय मुकुट श्रंगार है
झर झर झरते झरने मही पर
कल कल बहती नदियों की बहार है
ये भारत देश हमार है
कई सम्प्रदायों से बसी ये धरती
पर करते आपस में प्यार है
भाषा बदले भूषा बदले
आपस में न कोई तकरार है
ये भारत देश हमार है
मानव धर्म सबसे हसीं
इंसानियत का व्यवहार है
होली हो या ईद दीवाली
पर्व दशहरा सबका ये त्यौहार है
ये भारत देश हमार है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

सेनानी

सेनानी
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बचपन बीता खेलों में
माँ के सुन्दर सुन्दर गीतों में
मन मयूर मचलता फिरता गलियन में 
भौंरा बन मंडराता छुप जाता कलियन में
गावों की नागिन सी पग डंडियाँ
बलखाती जा मिली जब हसीं शहरों से
प्रेम रंग में डूब गया जा टकराया लहरों से
कुछ मीत यहाँ कुछ मीत वहां
कुछ साथ रहे कुछ बिछड गए
हमने देखा उसने पहचाना
वादा था जीवन साथ निभाना
वादे करते वो आईने से
हाथ लगे और टूट गए
खट्टी मीठी यादों के सुर
पैरों में जैसे बंधे नुपुर
लय ताल न रही बिखर गए
जीवन के नित रंग नए -नए
डूबा न गम के अंधेरों में
प्रेम की फितरत पहचानी
सुने थे किस्से हीर मजनू के
मिली न वो हुई अनजानी
ये प्रेम पुष्प जो खिलता है
सच्चे ह्रदय से निकलता है
सच्चा है केवल माँ का प्रेम
काहे दूजे की दुनिया दीवानी
करलो न अपने देश से प्रेम
तुम बन जाओ एक सेनानी.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भारत और हम

भारत और हम
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भारत सदैव
आजाद था
आजाद है 
आजाद रहेगा
गुलामी और आजादी
का कैसे भान हो
शासक कोई, शासन कोई
चाहें जो सरकार हो
जब मानसिकता विकलांग हो
भारत कभी जकड़ा नहीं
गुलामी की जंजीर में
देखने का दोष जो
सदा रहा तक़दीर में
लाख लिखने वालों ने
लिखा हो तहरीर में
भारत था आजाद
आज भी आजाद है
दुर्दशा का कारण स्वयं
दोष देते आन का
चाहिए कन्धा सदैव
ध्यान नहीं मान का
एक दूसरे से नाराज हैं
करते स्वयं कुछ भी नहीं
सोचते विचारते हैं बहुत
गलत सही का भान नहीं
बदलती सत्ता पे चाहें
जश्न जितना मना लो
बदलोगे नहीं आप को
तो कुछ नहीं पाओगे
जैसे रहे तुम सदा
वैसे ही रह जाओगे
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

कोटि कोटि नमन

कोटि कोटि नमन
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उन्नत भाल हिमालय का
गोद में बहती गंगा यमुना
सागर पांव पखारे
हर मौसम अपना
लहलहाते खेत जहाँ
धरती उगले सोना
धर्म निरपेक्षता धर्म जहाँ
लोकतंत्र की थाती है
विश्व शांति सन्देश हमारा
सारी दुनिया गुण गाती है
युगों युगों से देश सदा
ज्ञान विज्ञान का केंद्र रहा
भ्रमण पे आने वालों का
मन लुभावन क्षेत्र रहा
जो आया उसे अपना लिया
गया तो भी न बिसराया
शील सनेही भाव कारण
पग पग धोखा खाया
जल्दी चेते देर न की
रक्षा कवच चढ़ाया
हुआ आक्रमण
जब फिर हम पर
दुश्मन मार भगाया
धन्य हैं रणबांकुरे हमारे
धन्य हैं उनकी माता
शौर्य गाथा उनकी गा गा
भारतवासी शीश नवाता
भूल नहीं सकता भारत
उन बलिदानी वीरों को
आभार प्रकट करने को
चिताओं पर लगता मेला
श्रद्धा सुमन अर्पित उनको
“प्रदीप” ये जीवन का खेला
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

वन्दे मातरम्

वन्दे मातरम्
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जो हुआ अब बहुत हुआ
अब न होने पायेगा
टकराने वाला शेष न बचेगा
वह चूर चूर हो जाएगा
जाग गया है हिन्दुस्तान
हर जन यहाँ प्रहरी है
विकास के रास्ते खुल चुके हैं
शान्ति की जड़ गहरी है
टैगोर, तिलक, सुभाष, भगत की धरती
विभिन्न धर्मों की संगत सजती
पंचशील सिद्धांत हमारे
शास्त्री , नेहरु और बापू प्यारे
तुलसी, कबीर, सूर की वाणी
एक से एक कवि, मुनि, विज्ञानी
सात रंगों में सभी रंग न्यारे
हरा, सफ़ेद और केसरिया प्यारे
इसमें बसता भारत हमारा
विश्व विजयी तिरंगा प्यारा
आओ इसको शीश नवायें
भारत माता की जय गायें
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

वे कोई भगत सिंह तो नहीं

वे कोई भगत सिंह तो नहीं
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भारत गुलाम था आज़ाद हुआ . अच्छी बात है आज़ादी . परतु प्रश्न उठता है कि भारत किसका गुलाम था. कब यह गुलाम रहा. क्या इससे पहले ब्रिटिश शासकों के हम गुलाम थे या उसके पहले मुग़ल शासकों के हम गुलाम थे या उसके पहले जो भी, जिसका शासन रहा हो, उसके गुलाम थे. मैं तो समझता हूँ कि भारत पहली बार नहीं आजाद हुआ है, युगों युगों से ये आजाद था. भारत को गुलाम समझने वाले और आजाद मानने वाले मेरी द्रष्टि में आज भी उसी भ्रम में जी रहे हैं , जैसे आज तक जीते आये हैं. अगर देखा जाए तो भारत तो वही था जो आज है. राजनैतिक द्रष्टिकोण से भारत आज आज़ाद है. जब जब सत्ता बदली, शासक बदले , लोगों के अरमान बदले तब तब उन्होंने भी इसे आज़ादी माना होगा और हर बार जश्न मनाया होगा. भारत भले ही आज़ाद है पर आज भी स्थिति कोई भिन्न नहीं दिखती है, भले ही हम भौगोलिक और राजनैतिक रूप से आज़ाद हो चुके हों पर मानसिक एवं शारीरिक रूप से आज भी हमारी दशा वैसी है जैसी सैकड़ों साल पहले थी और शायद आगे भी सैकड़ों साल तक रहेगी. हमेशा दासियों एवं दासता में जकड़ी जिसकी मानसिकता रही हो वह आज़ाद कैसे हो सकता है, कहने में गुरेज नहीं है कि भारतीय नागरिक लकवाग्रस्त है. मैं भी भारतीय नागरिक हूँ, कोई अपवाद नहीं हूँ. चाहें वो शारीरिक रूप से हों या मानसिक रूप से हों. हमेशा रेंगते रहना, हमेशा चलने के लिए एक बैसाखी की आवश्यकता , हमेशा दूसरे के कंधे का सहारा लेना, चाहें पैदा होने पर या शारीर कि अंतिम यात्रा पर, चाहें दूसरों का हक़ मारने के लिए , चाहें अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमेशा दूसरे का कन्धा लिया करते हैं. क्या हम अपाहिज हैं. कभी हम आगे नहीं बढ़ते केवल दूसरे को आगे बढ़ने को कहते हैं और कहते हैं कि हम आपके पीछे हैं. आपका नेतृत्व ही हमें सही दिशा दे सकता है. भिखारी से भिन्न स्थिति नहीं है . वह भी एक सहायक रखता है. आप नाराज होंगे. हम भी नाराज हैं. आप हम से नाराज होंगे, मैं अपने से नाराज हूँ. हर कोई एक दूसरे से नाराज है. मेरी तरह सभी कहते हैं कि कोई कुछ करता नहीं, समाज कहाँ था, समाज कहाँ जा रहा है, कैसे सुधरेगा, कौन सुधारेगा. तमाम प्रश्न , कोई हल नहीं देता, सभी एक दूसरे से पूंछते हैं. मैं भी यही कहता हूँ, खुद कुछ नहीं करता. केवल कागज काले करता हूँ. वाह वाह लूटता हूँ, फिर बैठ जाता हूँ कागज काले करने को. पता नहीं यह वाह असली है या मात्र समाज की औपचारिकता . अरे भाई क्यों एक दूसरे से पूंछते हों, खुद क्यों नहीं कुछ करते हों. खुद को बदलो . दूसरे को बदलने में समय नष्ट होगा. क्यों कि आप तो अपने में किसी न किसी तरह परिवर्तन ला सकते हैं पर दूसरा बदले या न बदले उसकी क्या गारंटी, यह तो उस पर ही निर्भर करेगा कि उसे क्या करना है. छोटी सी जिंदगी में समय नष्ट करना कहाँ तक ठीक है.
अगर हम मानसिक रूप से लकवाग्रस्त न होते, रेंगने की आदत न होती , दूसरों के कन्धों का सहारा लेने की प्रवृत्ति न होती , अपना नेतृत्व प्रदान करने की ललक होती, बार बार लगती आग से जलाने और अधिकार पाने में मंद न होते और उस आग को आग ही रखते , ठंडा न होने देते , राख में चिंगारी की तरह दबाने की आदत न होती तो जिस भारत को आज हम आजाद किये हैं वह कई सौ साल पहले ही हमारा आजाद भारत होता. ऐसा नहीं है कि भारतीय निकृष्ट है. हम भारतीय हैं, भारत के रहने वाले हैं, विश्व में हम जैसी कोई मिसाल नहीं है. इस पर मुझे ही क्या हर भारतीय को गर्व है. यह मेरा वतन है. इसके लिए जान भी कुर्बान है. जब जब देश को आवश्यकता पड़ी , प्रत्येक भारतीय ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर भारत माता के मान की रक्षा की और मुझे ही क्या प्रत्येक भारतीय को इस पर गर्व है और वक्त आने पर ऐसा ही करेगा.
भारत भले ही काल, सीमा, भिन्न भिन्न शासकों की वजह से गुलाम रहा हो परन्तु भारतीय संस्कृति , शाश्वत मूल्यों , बौद्धिक , धार्मिक सम्पदा की वजह से पूरे विश्व का शासक रहा है और सदियों तक शासन करेगा.
हमारी कमजोरी है कि जागते भी हम जल्दी हैं , रक्त में उबाल भी जल्दी आता है पर सो भी जल्दी जाते हैं . साड़ी बातें तो किसी हद तक ठीक मणि जा सकती हैं पर सोने के बाद लम्बी नींद , बहुत लम्बी नींद यह बहुत कष्टकारी है, इसी वजह से निर्णायक स्थिति तक पहुँच कर भी लक्ष्य से हम फिर कोसों दूर रह जाते हैं और फिर तलाश होती किसी गाँधी कि या फिर किसी मसीहा के आने की.
शासक या शासन व्यवस्था बदलने से राज्य के शासकों का भाग्य बदलता है परन्तु उसमें रहने वाले नागरिकों कि दशा उनके स्वयं के कार्यों से बदल सकती है, नहीं तो स्थिति में क्या फर्क पड़ता है क्यूँ कि कोऊ नृप होई हमें का हानी, चेरी छोड़ न होउब रानी, येही मानसिकता पहले भी अधिकांश लोगों में थी और आज भी है, देशकाल कुछ भी रहा हो. आज भी वही स्थिति है. सत्ता किसी की भी हो, कोई सरकार आये या जाए , स्थिति कदापि नहीं बदलने वाली. क्योंकि इन्ही खेलों मेलों में कई पीढियां गुजर गई हैं और गुजरती रहेंगी. हमारी मानसिक विकलांगता के कारण.
भारत में अब लोकतान्त्रिक व्यवस्था है. इस लिए अब हमको हमारे बीच से ही अपनी भावनाओं को संघीय ढांचे के अंतर्गत मूर्त रूप देने और भारत के सर्वागीण विकास के लिए जन प्रतिनिधि चुनना होता है. अपनी सोच के अनुसार हम उन पर विश्वास व्यक्त करते हुए वोट देते हैं. वे सेवक बन के आते हैं, जनसेवक कहलाते हैं, शपथ ग्रहण करते ही जन प्रशासक बन जाते हैं . क्षेत्र के प्रतिनिधि होते हुए भी जन समस्याओं , जन भावनाओं के प्रति आदर में न्यूनता आ जाती है. भाग्य की विडंबना ही है कि जिनका चयन हम अपनी आकांछाओं की पूर्ति के लिए कर अपने भाग्य की बागडोर सौंपते हैं , उससे उनके विरत होने पर हम उन्हें वापस नहीं बुला सकते. सवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें उनके कार्यकाल तक ढ़ोना प्रत्येक की विवशता है. हम मानसिक रूप से कितने स्वस्थ हैं उसका परिचय उन्हें दोबारा चुन कर देते हैं.
इसमें दोष हमारा इतना ज्यादा नहीं है. हम अगर सच्चे ह्रदय से सोचें क्या हम भी तो उन जैसे नहीं हैं. जब समाज का स्वरूप इतना विकृत हो चूका है और दिन प्रतिदिन जारी है , तो कहाँ से लायेंगे ऐसे व्यक्ति को जो वास्तव में समाज के प्रति चिंतित हो , कुछ कर गुजरने की स्थिति में हो, मकडजाल में न फंस कर उसे काटे. सत्ता पा के कौन नहीं बौराता, इसका नशा ही कुछ अलग है. नशा तो नशा ही होता है, चांहे जिस चीज का हो. नशेडी खुद तो गर्त में जाता ही है साथ में अपने परिवार को भी गर्त में भेज देता है. ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है. यह भी हमारी मानसिक विकलांगता को दर्शाता है.
मानसिक विकलांगता का ताजा उदाहरण है अभी देश भर में हुए एक जनभावनाओं की आकांक्षा के अनुरूप लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जन आन्दोलन. तमाम चर्चे हुए . अंतिम चरण के आन्दोलन में प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार जुटा कि इस बार लक्ष्य की प्राप्ति जरूर होगी. महाभारत के युद्ध की भांति रणक्षेत्र सज गया. दोंप पक्ष तैयार . कलमकार, पत्रकार, चित्रकार, कैमरामैन , संवाददाता, बुद्धिजीवी वर्ग, आलोचक, समालोचक, देशी लोग, विदेशी लोग, सभी परिणाम के प्रति आतुर. लेखनी माँज ली गई, कागज का स्टाक जमा कर लिया गया, जीभ भी माँज ली गई. संपादक तैयार, कालम रिक्त रखने की हिदायत , शासन चुस्त, प्रशासन चुस्त. फिर चला अनवरत युद्ध . ज्ञान, विज्ञानं , कानून के कसीदे पढ़े गए. कौन श्रेष्ठ है जनता या जन सेवक की परिभाषा लिखी जाने लगी. चाय , पान, आफिसों की टेबुल पर बैठ कर चर्चा जारी रही. बिस्तर में रजाई ओढ़ कर टी वी पर भारत के भविष्य पर चर्चा का आनंद लिया जाता रहा. जो होना था सभी जानते थे, फिर भी कुछ अप्रत्याशित हो जाए तो, चमत्कार हो जाए. क्योंकि हम चमत्कार में ज्यादा विश्वास रखते हैं, कर्म में नहीं. चलनी में दूहते हैं कर्म नहीं टटोलते . सो वही हुआ . चूँकि इस बार अपनी पीड़ा को दूर करने के कर्म नहीं करना चाह्ते थे , जिग्यासा में अधिक विश्वास रखा. सो परिणाम तो वैसे भी वही होना था , पर शायद बदल सकते. खैर गुब्बारे की हवा निकल गई. हवा ज्यादा भी नहीं थी. ज्यादा समय नहीं लगा. और एक बार फिर हम सो गए. दे दिया परिचय की हम वास्तव में विकलांग हैं. अपने रहनुमाओं की हकीकत रहनुमा भी जानते हैं और हम भी जानते हैं. वे अपना किरदार निभा रहे हैं और हम अपना किरदार. दोष किसी का भी नहीं. आधे अधूरे मन से किया गया कार्य कभी लक्ष्य को वेध नहीं सकता.
जो हुआ सो हुआ . अपना अपना भाग्य, अपनी अपनी करनी. हम हर हाल में जी लेते हैं . हम भारतीय हैं न. अब तक तो जीते आये हैं . इसी को हमने अपना जीवन मान लिया है, तो फिर शिकवा किस बात का. ऐसे ही जीते रहने में कोई हर्ज है क्या. जो मजा नरक में है वह स्वर्ग में कहाँ. वहां कौन मिलेगा. सभी साथ रहें क्या हर्ज है. इतना प्रेम आपस में. इसी लिए तो भारत महान है. बस बहुमत होना चाहिए वह चाहें जैसे हो.
एक युद्ध समाप्त हुआ. जैसा की हर युद्ध का परिणाम होता है. सेनाएं वापस लौटती हैं. परिणाम वही रहता है. कुछ हांसिल नहीं होता. लुटती हैं भावनाएं, आहत होते हैं मन, दफ़न होती हैं आशाएं. फिर वैसा ही वैसा. सब कुछ पहले की तरह. फिर गले मिलते हैं. फिर आदर्श बघारते हैं. हम फिर अपने कलेजे को परोस देते हैं खाने को. हम भारतीय हैं.
फिर शुरू होता है बुद्धिजीवियों का युद्ध. आलोचना, समालोचना, ब्लोगिंग, कार्टून, प्रश्न पूछना, निंदा, परनिंदा, नेतृत्व पर शक, शब्द बाण, चरित्र हनन और न जाने क्या क्या , यह चलता रहेगा. मैं भी तो यही कर रहा हूँ. मैं इन लोगों से कोई अलग तो नहीं. में भी भारतीय हूँ. मैं क्यों दिखूं अलग इन लोगों से, क्यों लिखूं अलग इन लोगों से , मुझे भी तो भारत में रहना है, कुछ अलग कहा तो जिऊंगा कैसे, हर हाल में वन्दे मातरम् कहना है. इसी को तो समाज कहते हैं. इससे विरत हुए तो हश्र पता है.
क्या जरूरी है कि कोई आगे चले. निश्चित तौर पर नेतृत्व जरूरी है. क्योंकि उसे अनुभव होता है. उसमे ऐसा कुछ अवश्य होता है जिसका अनुकरण प्रत्येक के लिए लाभप्रद होता है, फिर अविश्वास क्यों. ये निंद्रा क्यों. एक शारीरिक द्रष्टिकोण से वृद्ध व्यक्ति , मानसिक और चारित्रिक रूप से मजबूत व्यक्ति पर ऐसी श्रद्धा. प्रश्न चिन्ह लगाया गया. उसे क्या चाहिए , क्या कमी है, दो रोटी तो वे स्वयं ही खा सकते हैं. यह किसका दर्द है. किसका भविष्य उनके सपनो में है. किसके लिए कष्ट उठाना है. क्या अपने लिए . आपके लिए अपना जीवन कोई क्यों दे.
घर कि सफाई के लिए , घर परिवार सजाने के लिए , कपडे पहनने के लिए, सजने सवरने के लिए, जीवन यापन के लिए, मनोरंजन के लिए किसकी सहायता लेते हो और जिनसे उम्मीद रखते हो कि वे आपके उत्थान के लिए ऐसी व्यवस्था देंगे , भले ही तात्कालिक रूप से इन्हें स्वयं को लाभ न मिले, पर उनके आने वाले वंशज निश्चित रूप से ऐसी व्यवस्था से लाभान्वित होंगे, पर कैसे देंगे, और क्यों दें. वे कोई भगत सिंह तो नहीं हैं जो हँसते हँसते फाँसी का फंदा अपने गले लगा लें.
मानसिक रूप से विकलांग समाज का एक और उदाहरण पत्थरों का शहर , पत्थर दिल, पत्थर मन, इंसानियत भी पत्थर , पत्थर इन्सान, फिर भी एक अफवाह से ठंडी हवा में रात भर सारा भारत सड़क पर आ गया. किस लिए. इसके पहले क्यों नहीं. क्या वास्तव में हम जिन्दा हैं. पहले भी हारे थे और यहाँ भी हार गए. अरे भाई पत्थर हो जाते तो शायद फिर कोई राम आता और हमारे कष्टों से मुक्ति दिलाता. वास्तविक मुक्ति.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

संकल्प

संकल्प
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नव प्रभात की बेला में
यह संकल्प संचार करो
मानव धर्म रहे जग में
न रहे रंग, जाति का भेद
एक भाव एक दृष्टि
समरस हो जाये श्रष्टि
ऐसे युग का निर्माण करो
नव प्रभात की बेला में
यह संकल्प संचार करो
मलय पवन सी शीतलता ले
मन में करें अतीत का मंथन
आधार बने जीवन का
शाश्वत मूल्यों का चिंतन
लिखो नया इतिहास
सुखी हो जाये जन जन
राष्ट्र समर्पित भक्तों का
जन समूह तैयार करो
नव प्रभात की बेला में
यह संकल्प संचार करो
जो बीत गया उसे भूल कर
खट्टे मीठे अनुभवों के
झूले में झूल कर
दृढ प्रतिज्ञ बन
तोड़ सारे बंधन ऊँचे उठो
छू लो आकाश की बुलंदियां
स्वर्ग को उतार कर
धरती माँ का श्रृंगार करो
नव प्रभात की बेला में
यह संकल्प संचार करो
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
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खुले आसमान के नीचे
एक हुजूम इकट्ठा था
तन जड़ था, मन था आंदोलित
ठंडी हवा में ओस की बूंदों को सुखाते हुए
कभी आपस में , कभी खुद से
कयास लगाते हुए
चाय की चुस्कियों के बीच
जगी आस पर
पड़ी गर्द को हटाते हुए
विश्वास , अविश्वास के हिंडोले में
अनुत्तरित प्रश्न का हल ढून्ढ रहे हैं
दूसरी तरफ हमारे रहनुमा
विशालकाय ऊँचे वातानुकूलित भवन में
अपनी विद्वता , यथा शक्ति के अनुरूप
शब्द बाण चलाते हुए
कौन से स्वार्थों की पूर्ति के लिए
अपने गिरेबान को छोड़ कर
एक दूसरे के नश्तर लगाते हुए
कभी धीरे कभी जोर से चिल्लाते हैं
वक्त आने पर बाहर निकल आते हैं
भ्रष्टाचार, शिष्टाचार का कफ़न ओढ़े
उसको दफन करने की कवायदें जारी
पहले भी हुईं थी आज भी
क्या जीत होगी हमारी
मन के किसी अँधेरे कोने में
आशा की किरण कौंधती है
घने अंधरे में जैसे जुगनू
मंजिल का पता देती है
भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाये हुए
जानते थे हश्र फिर भी है इंतजार
कोई मसीहा हमें दिला सके निज़ात
स्वराज तो मिला पर नहीं मिला सुराज
शायद ये भारत का दूसरा गाँधी दिला सके
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

क्या दूसरी तैयारी है?

क्या दूसरी तैयारी है?
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आरक्षण की गाडी
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण को जाती
सवारी उतनी ही
पर डिब्बे रोज बढाती
राष्ट्र एक है, धर्म निरपेक्ष है
बांटम बांट क्यों करवाते हो
सवारियों को आपत्ति नहीं जब
एक ही डिब्बे में बैठने को
न जाने फिर क्यों
अलग अलग डिब्बे लगवाते हो
गाडी एक है रंग एक है
सबरस, समरसता के जोगी
बैठते हैं जब एक संग
क्यों लगाते हो फिर
दूसरे रंग की बोगी
रक्त सफ़ेद है जिनका
धरती पर गिर क्या रंग लाएगा
एक बार तो बह चुका लहू
क्या दोबारा गिरवाएगा
मंदिर टूटते मस्जिद टूटती
गुरद्वारे, चर्च भी नहीं सुरक्षित
भरने लगते जब घाव ह्रदय के
फिर से चोट क्यों लगाते हो
हमेशा डालते हो क्यों बाधा
क्या मिलता है तुमको बाघा से
एक बार तो बंट चुके
क्या दूसरी तैयारी है
खेलो खेल तुम अपने घर में
देश से न खिलवाड़ करो
बहुत सह चुके अब न सहेंगे
चाहें जितना अत्याचार करो
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

बंटना हमारी नियति है ?

बंटना हमारी नियति है ?
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काल का काल मैं बंटना
काल के बंधन में बंधना
अहंकार, गर्व के पोषण में
विश्व के दर्पण में चमकना
धार्मिक उन्माद की आंधी में
देश का सीमाओं में बंटना
बंटना हमारी नियति है ?
कभी जातिवाद कभी मजहब राग
क्षेत्रवाद कभी भाषा विवाद
कभी संख्या बल, के बल पर
सीमाओं में सीमा रेख खींच कर
बंटना हमारी नियति है ?
एक समाज अब अनेक समाज
एक धर्म अब अनेक धर्म
फैला दिया ऐसा भ्रम
भूल गये राष्ट्र धर्म
बंटना हमारी नियति है ?
देश में देश का बंटवारा
समाज में समाज का बंटवारा
परिवार में परिवार का बंटवारा
भाई भाई का बंटवारा
माँ बाप के प्यार का बंटवारा
बंटना हमारी नियति है ?
जब भेद भाव, धर्म, जाति
नफरत की आंधी चलती
मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा
जहाँ हो पूजा, आरती और अजान
अब वहां रक्त धारा बहती
बंटना हमारी नियति है ?
दलित, पिछड़े का झगडा
कभी अगड़ा कभी पिछड़ा
पिछड़े में भी पिछड़ा
क्या अगड़े में पिछड़े नहीं हैं
या पिछड़े में अगड़ा
जानबूझ कर अनजान बने हो
मोहपाश में किसके फंसे हो
आपस में क्यों बंटे हुए हो
बंटना हमारी नियति है ?
कैसा लगता है जब कोई
पिछड़ा, दलित कह बुलाता है
क्या आहत होता नहीं स्वाभिमान
क्या नहीं हम इस धरती के इंसान
बंटना हमारी नियति है ?
हम बंटे हुए थे बंटे रहेंगे
समझते हुए भी नहीं समझेगे
क्या पाया उस बंटने में
क्या पायेंगे इस बंटने में
बंटना हमारी नियति है ?
देखो रक्त बहा जो धरती पर
किस मजहब का किस जाति का
क्या इसकी कोई पहचान है
जब यह नहीं बंटा क्यों फिर हम बंटें
बंटना हमारी नियति है ?
कौन फूला है कौन फला है
घर परिवारों की लड़ाई में
जो मजा है सह्रदयता, समरसता में
उसका आनंद उठाओ
जितना बंटना था बंट चुके
कर्मवीर बन जाओ .
एक ही धरती एक ही अम्बर
न कोई अगड़ा न कोई पिछड़ा
हम सब एक समान
अब न होने देंगे टुकड़े
एक रहेगा पूरा हिदुस्तान
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई
आपस में हैं भाई भाई
मानवता है सबका धर्म
आओ अब सब मिलकर
क्यों न करें अच्छे कर्म.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भ्रष्टाचार- आम आदमी क्या करे

भ्रष्टाचार- आम आदमी क्या करे
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जाड़े की रात है . बाहर तेज हवा चल रही है. कमरे की टूटी खिड़की से अन्दर आती हवा कमरे की दीवार पर टंगे कैलेण्डर को झूला झुला रही है और खर्र खर्र की आवाज रात्रि के सन्नाटे को भंग करती हुई अपनी लय ताल का आनंद ले रही है. मैं अपनी टूटी हुई खाट जो मेरे बोझ से दब कर लगभग जमीन को छू रही है, पर कथरी ओढ़े बैठा हूँ. मेरे पैरों के बीच, मेरा कुत्ता भोलू भी सिमटा हुआ मजे से सो रहा है. उसके शरीर की गर्मी मेरी सर्दी के अहसास को कम करते हुए एक अजीब सा सुखद आनंद दे रही है, मेरी पत्नी बच्चों के साथ पास ही जमीन में पुआल के बिस्तर पर सिकुड़ी हुई पुआल ढंके सो रही है.
सर्दी के प्रकोप से मुझे खांसी है, है तो मौसमी खांसी पर तकलीफ देह है. खांसी ही क्या हमारे जैसे लोगों के लिए कौन सी ऐसी चीज है जो तकलीफ देह न हो. वैसे भी इस देश में जो हो रहा है उसके अतिरिक्त दो जून की रोटी की व्यवस्था की चिंता, साथ ही कमर तोड़ती महंगाई और न जाने क्या-क्या , सम्बन्धी विचार मन में आने जाने के कारण नींद या तो जल्दी आती नहीं है अगर किसी प्रकार आ भी गई तो ये जानलेवा खांसी खाट पर उठा कर बिठा देती है.
मैं कोई बुद्धिजीवी वर्ग का सदस्य तो हूँ नहीं की देश के हालातके विषय में चिंतन कर सकूं, कहीं समाज में अपने विचार व्यक्त कर सकूं . मैं भारत का एक निरीह आम नागरिक हूँ. मुझे जिन लोगों के बीच रहना है और सुरक्षित रहना है तो कुछ कह भी तो नहीं सकता.
आप कहेंगे कि आवाज उठाओ, अपने विवेक का प्रयोग करो, खुद जगोगे तभी सवेरा होगा, तुम्हारा विकास होगा. मैं कहता हूँ कि मैं कोई अकेला नहीं, मेरे जैसे करोड़ो हैं, वे भी इन्ही हालातों में जी रहे हैं. आवाज तो नहीं उठा पा रहे हैं , पर क्या उनके कराहने कि आवाज, बच्चों का रुदन, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण उनको दिखाई सुनाई नहीं देता जो हमारे रहनुमा हैं, भाग्य विधाता हैं.
पर क्या करूँ हूं तो फिलहाल मैं आदमी . चाहें मेरी स्थिति का स्तर कोई भी हो. मुझे भी भूख लगती है. अपने परिवार के पालन पोषण , बच्चों कि शिक्षा , इलाज, तमाम जीवन कि बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सीमित संसाधनों के बीच योजना बनानी पड़ती है.
वर्तमान व्यवस्था में ही तो जीना है . खाट तो मेरे आर्थिक जर्जर दशा और बोझ के कारण दबी है परन्तु भारत के आम नागरिक की स्थिति भी मुझ से भिन्न नहीं दिखती, वे भी दबे हुए हैं. मैंने किसी से सुना है कि जितनी ताकत से किसी चीज को दबाया जाए तो उतनी ताकत उस पर भी वापस लगती है. पर ये चेतना कब जाग्रत होगी, कब अपने विकास के बारे में लोग जागरूक होंगे, कब उछाल आएगा, कब हमारी दशा सुधरेगी. मुझ जैसे लोगों कि संख्या लाखों में नहीं करोड़ो में है.
मेरी फटी कथरी से कहीं कहीं हवा चाहें जैसी हो , शरीर को छू तो जाती है, शरीर के अंगों को पूरी तरह छिपाने में असमर्थ है पर उस चादर का क्या किया जाए जो न तो जीने देती है और न मरने देती है. भ्रष्टाचार की चादर अब शिष्टाचार की चादर है जो पूरे भारत को ढंके है और हम जैसे निरीह प्राणियों के लिए कफ़न है. तकनीकी रूप से सांसें चल तो रही हैं , जिन्दा की श्रेणी में गणना है पर आत्मा छटपटा रही है.
न जाने भारत की राजनीती में कब सुधार होगा, क्या सुधार होगा, कौन सुधार करेगा. किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है. जब पूरा देश अपने अपने हितों के लिए राजनीती कर रहा है, तो स्पष्ट सोच के आधार पर राष्ट्र हित और संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के निष्ठां पूर्वक लागू कराये जाने के लिए, कौन नायक बनेगा.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

भारत किस दिशा में ?

भारत किस दिशा में ?
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भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, यहाँ सभी धर्मों के लोग अपनी अपनी धार्मिक, सामाजिक , परम्पराओं के साथ स्वतंत्र रूप से रहते हैं और उन्हें भारतीय संविधान के तहत सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाएँ बगैर किसी भेद भाव के प्राप्त हैं. भारत में एक जगह से दूसरी जगह जाने की पूर्ण आजादी है. सामान्य परिस्थितियों में सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के धर्म को सम्मान देते हैं. एक दूसरे के तीज त्यौहार आपस में मिल बगैर वैमनस्य के मानते हैं. इसको प्रत्येक भारतवासी जनता है और मानता है और शांति पूर्ण जीवन जीना चाहता है.
जहाँ तक मैं समझता हूँ राजनीति भी एक धर्म है. धर्म कोई भी हो वह सदैव श्रेष्ठ होता है. उसमे किसी भी प्रकार की न तो कोई कमी होती है और न ही निकाली जा सकती है. और न ही निकालना चाहिए . यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस धर्म की दुहाई देकर उसके क्रियान्वयन , अनुकरण एवं अनुसरण को लेकर विवाद होते हैं क्या उस धर्म के सिद्धांतों , शिक्षाओं , कथाओं एवं उसके मर्म से उनके अनुयायी भली प्रकार से भिज्ञ हैं. मुझे ऐसा नहीं लगता कि वे भिज्ञ हैं. अगर वास्तविक रूप से यदि उनमें अपने धर्म के प्रति सच्ची निष्ठां होती, उनके मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी होती तो जिस प्रकार से कुछ मुट्ठी भर लोग चाहें किसी धर्म या सम्प्रदाय के हों का जो आचरण परिलक्षित हुआ है और समय समय पर इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है , कदापि प्रदर्शित न होती.
इसका मुख्य कारण मैं अशिक्षित होना मानता हूँ. ऐसा नहीं है कि अशिक्षित व्यक्ति या कम पढ़ा लिखा व्यक्ति अपने धर्म के बारे में न जानता हो और तदनुसार पालन न करता हो वे भी धर्म कि अवधारणा से भ्रमित नहीं होते हैं, परन्तु सभ्य समाज के शिक्षित वर्ग ऐसा आचरण करे तो निश्चय ही चिंता का विषय है. यह सर्विदित है कि किसी भी धर्म के शास्त्रों का यदि विधिवत अध्ययन किया जाये परन्तु उसकी सम्पूर्ण व्याख्या में कोई भी व्यक्ति अपने को पारंगत एवं पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता . परन्तु मैं तो अपने बारे मैं ऐसी ही धारणा रखता हूँ. जो सत्य भी है. क्यों कि एक ही शब्द, वाक्य इत्यादि के कई कई अर्थ, भाव और व्याख्याएँ विद्वानों द्वारा की जाती हैं और वे सटीक होती हैं. सामान्य जन उन्हें पढ़ सकता है, समझ सकता है, दूसरों को उपदेश भी दे सकता है. लोग उसको सुनकर अनुकरण एवं अनुसरण भी करते हैं पर कितने लोग उसके वास्तविक मर्म को समझ कर पालन करते हैं.
किसी भी धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है . जबरन धर्मान्तरण का आदेश नहीं है. दूसरे की भावनाओं को आहत करने का निर्देश नहीं है. सामान्यतयः ऐसा होता भी नहीं है. न जाने क्यों लोग धार्मिक भावनाओं को उभार कर धर्म के नाम पर अपने धर्म को कलंकित करते हैं. इंसानियत का पाठ दूसरे को पढ़ाते हैं अपने लिए क्यों नहीं. निरीह नागरिकों की शांति क्यों भंग करते हैं , उनके जान माल के लिए क्यों खतरा बनते हैं. क्या धर्म इतना कमजोर है. ये कांच की चूड़ी तो नहीं. अगर कमजोर नहीं है तो भय किस बात का . लोगों को अपने विचार शालीनता से प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता है. विचारों के समक्ष , विचार रखें. घ्रणा क्यों? हिंसा क्यों?
वर्तमान में भारत का जन मानस चिंताग्रस्त है. महंगाई , भ्रष्टाचार से त्रस्त है. साथ ही धार्मिक कट्टरता का प्रदर्शन चरम सीमा पर है. जो धर्म निरपेक्ष एवं लोकतान्त्रिक देश के लिए शुभ संकेत नहीं है. और इसके विरुद्ध आवाज उठाने एवं द्रढ़तापूर्वक शमन किये जाने का दायित्व किसका है यह बताने की जरूरत है क्या. सर्वोच्च पदों पर आसीन महानुभाव अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए संवैधानिक व्यवस्था की उपेक्षा कर उस दिशा की ओर जा रहे हैं जो भारत की आजादी के समय तुष्टिकरण की नीति अपना कर पैदा की थी. जिसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ी. क्या आज भारत का भाग्य भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों एवं कर्तव्यों के दिशा निर्देशों द्वारा सुधारा जायेगा या अस्वस्थ मानसिकता वाले चन्द लोगों द्वारा.
जैसे हालात देश के हैं और ऐसे ही रहे , सकारात्मक सोच के साथ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है न की कोई अन्य मार्ग अपनाकर राष्ट्र की अस्मिता, अखंडता पर घात सहने की. धर्म के नाम पर तो देश को एक बार बाँट ही दिया, फिर जाति और वर्ग के नाम. सीमाओं में बाँटने का खेल जारी है , जैसे प्रकरण सामने आ रहे हैं और समर्थन परोक्ष , अपरोक्ष रूप में दिया जा रहा है उससे आभास हो रहा है कि फिर देश को एक बार वैसी स्थिति से न गुजरना पड़े जिससे वह कई साल पहले गुजर चुका है.
राष्ट्र में जब जब शांति छा जाती है तो फिर अस्थिरता पैदा कर दी जाती है. मात्र अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए. यह महात्मा गाँधी जी का देश है. शांति , अहिंसा धर्म का पालन करने वाला राष्ट्र है. उस राष्ट्र में कट्टर विचार धारा का स्थान क्यों, संरक्षण क्यों, किसके लिए. गाँधी जी की अवधारणा कि पाप से घ्रणा करो पापी से नहीं. गाँधी दर्शन कि दुहाई देने वाले उनके सिद्धांतों से आज विमुख क्यों हैं.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

हम हिन्दुस्तानी

हम हिन्दुस्तानी
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इस धरती पर जन्म लिया मिटटी में संग पले बढे
एक ही माँ के जब बेटे हम फिर क्यों आपस में लड़े पड़े
हम हुए जुदा पर क्यों आज अलग थी किसी की नादानी
आजाद हुए सब संग लड़े भिड़े मिलकर दी सबने क़ुरबानी
देश जाति मजहब भाषा का खेल वो क्यों हमें खिलाते हैं
जिनका खुद का कोई धर्म नहीं आपस में क्यों हमें लड़ाते हैं
करा बंटवारा किसके खातिर अब फिर क्यों करवाते हैं
एक रंग एक रूप हम फिर वे दूजा रंग क्यों चढाते हैं
आओ छोड़ो नादानी को सब मिल धरती माँ का श्रंगार करे
तोड़े जो ये पुष्पित माला हन्ता बन ऐसे दुष्टन का संहार करे
आओ हाथों में हल ले हम किसान बने ले बन्दूक तुम सेनानी.
भारत का एक नया इतिहास रचें गायें गीत हम हैं हिन्दुस्तानी
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा