हार्दिक शुभ
कामनाएं
------------------------
दूजा वर्ष था ओ बी ओ
तब से हुआ संग
श्वेत श्याम
ज्ञान मेरा
हुआ रंगा रंग
ग्यानी गुण जन सब बसे
ये सोने की खान
शिक्षण पद्धति
बहुत भली
जान सके तो जान
क्या है
इन्कलाब
नहीं जानता
शायद आप जानते
हों
हिंदी उर्दू अरबी
फारसी
लब्ज तो नहीं
पञ्च तत्व
पञ्च इन्द्रियां
पञ्च कर्म
या
मुर्दा कौमों की
संजीवनी बूटी ?
बस इतना जानता
हूँ
हाथ नहीं
पंजा नही
एक बंधी मुट्ठी
आशाओं को समेटे
हुए
आसमान को भेदते
हुए
सीने में दफ्न
एक आग
एक ललक
हद से गुजर जाने
की
सीना तान
बुलंद आवाज
मेहनतकश
मजदूर और जवान
इन्कलाब जिंदाबाद
कहता है
इसके अस्तित्व का
एहसास होता है
इन्कलाब
कहीं खुदा तो
नहीं
जो सब देता है ?
---------------------------------------------
प्रदीप कुमार
सिंह कुशवाहा
३-५-२०१३
गीत वो गा
रहे // कुशवाहा //
-----------------
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
------------------
मंच था सजा हुआ
चमचों से अटा हुआ
गाल सब बजा रहे
भिन्न राग थे गा रहे
सुन जरा ठहर गया
भाव लहर में बह गया
चुनाव है था विषय
आतुर सुनने हर शय
शब्द जाल फेंक वे
जन जन फंसा रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
-----------------------
बढ़ बढ़ बली आये
चढ़ चढ़ मंच धाये
पांच साल क्या किया
उपलब्धि गिनवाये रहे
जिसे घोटाला कह रहे
घोटाला नहीं विकास है
स्विस बैंक जमा धन
अँधेरा नहीं प्रकाश है
सुरक्षित यहाँ धन नही
अधिक ब्याज ला रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
-------------------
थी सडक कहीं नहीं
बिजली का पता नहीं
जगह जगह गड्ढे थे
शराब के अड्डे थे
दूकान पर राशन नहीं
स्वच्छ प्रशासन नही
धन्य वाद आपका
हम पे एतबार किये
गाड़ दिये खम्बे सभी
तार अभी लगवाय रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
------------------
अपराध में सानी नही
धन्धे में बेईमानी नही
टू जी हो या थ्री जी
कोयला घोटाला पी
देश सुरक्षा में भी
सेंध लगवाय रहे
रहने को घर नही
पीने को पानी नही
वाल मार्ट खोल कर
दारू पानी बिकवाय रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
---------------------
सोना महंगा हुआ
चांदी लुभाय रही
दलहन उत्पादन घटा
वनरोज खाय रही
योजनाएं चली बहुत
मनरेगा छाय रही
बन्दर बाँट होये न
फेल हुई हाय री
गैस खाद महंगा किया
सब्सिडी हटवाय रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
--------------------
बिन दवा गरीब मरे
बड़े लोग पाय रहे
दाने दाने मोहताज
अन्न को सडाय रहे
स्कूल में शिक्षक नहीं
लैपटॉप बंटवाय रहे
विदेश नीति में हम
सास बहू रिश्ता निभाय रहे
छीने जमीन कोई
शीश कटवाय रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
--------------------
इस बार वोट दो
पांच वर्ष न आउंगा
दूर से तकोगे
हाथ नही आउंगा
बैठ सदन में
ठंडी हवा खाऊंगा
भूलूँगा मैं तुम्हें
तुम्हें याद आऊंगा
मदारी बन मैं
नाच खूब नचाउंगा
नख से शीर्ष तक
पोशाक देखते रहे
गीत वो गा
रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
--------------------
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२-५-२०१३
सांप नाथ -नाग नाथ उवाच
---------------------------------
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
बिजली आती है
हाँ जी आती है
कैसे आती है
खून बहे रक्त नली में
तारे टिमके जैसे जमी पर
प्रेमियों को भाती है
बिजली आती है
हाँ जी आती है
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
--------------------
न आये तो क्या हो करते
रात गुजर कैसे
करते
जनता त्राहि त्राहि करती
खेती किसानी करते डरती
हमको भी तो बतलाओ
झूठ है या सच है बाती
बिजली आती है
हाँ जी आती है
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
------------------
अपराधियों को खूब फब्ती
गली सडक चौराहे
पर
मोमबत्तियां हैं जलती
राष्ट्र हित में उर्जा
बचती
देता सब कोई बधाई
सुन लो अब मेरे भाई
बिजली आती है
हाँ जी आती है
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
---------------------
इतनी महंगी है क्यों फिर
लोड टैरिफ लगे है सिर
कम्पनी घाटे में दिखती
रात अँधेरे में कटती
कैसी है बेशर्मायी
मिल काटते नित मलाई
बिजली आती है
हाँ जी आती है
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
---------------------
बिजली का बिल वे न भरते
कटिया कनेक्शन घर सजते
कसो आन्दोलन
करते
बिल तुम्हारा भी तो बाक़ी
स्टाफ संग क्या सगाई
बिजली मंत्री हूँ भाई
बिजली आती है
हाँ जी आती है
सुनो सांप नाथ जी
कहो नागनाथ जी
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
४-५-२०१३
माँ //कुशवाहा //
----
कोई याद रहे या न रहे
कोई साथ रहे या न रहे
हम रहें या न रहें
तुम रहो या न रहो
हमेशा वो रहती है
स्वयं और उसकी यादें
माँ
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१-५-२०१३
कैसा समाज // कुशवाहा//
-------------------------
जनम लेत बालिका जननी न सुहात है
माम सुन चाहत है मात नही भात है
कृष् काय बदन लिये तन पर नहि गात है
चौराहे अन्न सडत कैसा सुप्रभात है
वैभव विहीन वो जनम काली रात है
कली न खिली अभी भंवरे मडरात हैं
खग गगन उड़न चहे बाजों का राज है
सखि संग खेलन गयी संझा की बात है
मैला आंचल हुआ लुटी सगरी रात है
दोषी भला ये क्यों अपने ही भ्रात हैं
संस्कार विहीन ये अपराध सम्राट हैं
दिया नहि ध्यान कभी कहाँ कहाँ जात हैं
अपराधी बने वे करत पश्चाताप हैं
घर में बैठ कभी करत नही बात हैं
पैसा पैसा करत मरते दिन रात हैं
शूल बन पथ में आज कंटक चुभत जात हैं
संस्कृति सभ्यता ज्ञान से नहि कुछ नात है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२४-४-२०१३
क्रांति
-------
चिंता छोड़ो सुख से जियो
पुस्तक हम भी ले आये
विश्वास रहा न उनके ऊपर
वोट थे जिनको दे आये
पढ़ा लगा मन उसे प्रतिदिन
चिंता दूर न हो पायी
गयी बेटी सवेरे पढने
जब तक वापस घर न आयी
कहाँ देखें कहाँ न देखें
हर पल लगा रहे अंदेशा
न जाने कहाँ मिल जाएँ
राक्षस बदले हुये वेषा
लाख उपाय कर के देखे
नित बदल बदल कर कानून
धरना प्रदर्शन आन्दोलन
रोक सका न बहता खून
सोच आपकी गलत नही
सोच
कर सोच को देखो
जरूरी हुई नैतिक शिक्षा
मन आवेगों को रोको
सूरज तपना छोड़े न
मयूर
न छोड़ता नर्तन
सैनिक
बजाता बांसुरी
कवि
करता अब कीर्तन
बदलेगा
समाज कैसे
कैसे
शांति अब आएगी
रामायण
गीता भूले सब
सोचो
कैसे क्रांति आयेगी
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२२-४-२०१३
नारी तू नहीं है
अबला
--------------------
नारी तू नहीं है अबला
है शक्ति स्वयं पहचान
खुद को शोषित मान ले
फिर कौन करे सम्मान
दूषित जग से लड़ना होगा
खुद ही आगे बढ़ना होगा.
रूप धार कर
रण चंडी का
अधिकार छीन
लेना होगा
जगा आत्म
अभिमान
नारी तू नहीं है
अबला
है शक्ति स्वयं पहचान
क्या क्या नही तुझे
सब कहते
कैसी कैसी फब्ती कसते
तुझे मूढ़
अज्ञानी कहते
दुर्गुण आठ सदा
उर रहते
सब मिल करते
बदनाम
नारी तू नहीं है
अबला
है शक्ति स्वयं पहचान
पोखर सी ख़ामोशी क्यों
सागर सी तू रह मौन
कर बुलंद अपने को तू
आकाश झुके पूछे तू कौन
जग के इन झंझावातों में
तुझको स्वयं संवरना होगा
अब मत रहना अनजान
नारी तू नहीं है अबला
है शक्ति स्वयं पहचान
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
हाय जनता
----------------
प्रतिष्ठान के
मालिक ने
होली मिलन मनाया
सभासद सांसद सहित
मेरा भी न्योता आया
हारे जीते नेता सब आये
उपलब्धि के गीत थोथे गाये
संघर्ष बहुत किया भारी
तब आयी जीतन की बारी
विकास क्षेत्र का कर दूंगा
बदले में वोट केवल लूँगा
करतल ध्वनी हुई भारी
टूटी नयनों की खुमारी
वादा फिर करते झूठा
हाय जनता भ्रम न टूटा
बार बार तुम छले जाते
जोड़े रहते तब भी नाते
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
1-4-2013
ओ कनहइया
----------------
घोर कलियुग आ गया
बाप बड़ा न भइया
सारे जग को नाच
नचाये
काला सफ़ेद
रुपइया
वक्त कभी था जगह
जगह
ज्ञान की बातें
होती
लुटती अस्मत बीच
सड़क
ममता घर घर रोती
कब बदलेगा ये चलन
जब' भाई ' बनेंगे भइया
सारे जग को नाच नचाये
काला सफ़ेद रुपइया
हरी भरी
धरती थी अपनी
कल कल नदिया बहती
भरपूर फसल दे
उत्पादन
जन जन पेट को
भरती
काटे वन काटे तन
मन
दिखे न अब गौरइया
सारे जग को नाच नचाये
काला सफ़ेद रुपइया
सुनते थे
हम प्रभु जी
पाप धरा पे बढ़
जाता
किसी रूप में खुद
चलकर
तू धरती पे आता
टूट चुके हम सब
मालिक
रक्षा कर ओ
कनहइया
सारे जग को नाच नचाये
काला सफ़ेद रुपइया
प्रदीप कुमार
सिंह कुशवाहा
21-3-2013
जीवन-मृत्यु
----------------
एक अदृश्य सी रेखा
जीवन मृत्यु के मध्य
चुनना अत्यंत कठिन
दोनों में से एक को
जीवन क्षणभंगुर
अकाट्य सत्य है
मृत्यु भी असत्य नहीं
जान लें इस भेद को
मृत्यु की छाती पर
नर्तन करता जीवन
पकड़ना चाँद लहरों में
बाँधना रेत का कठिन
चेत रे मन होश न खोना
जीवन है अमूल्य खरा सोना
सुन्दर जीवन जिया जाये
होय वही जो पिया मन भाये
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा / २०-१-२०१३
डा . तुकबंद की तबाहियां
------------------------------
निकला मेरा जनाजा उनके इश्क की छाँव में
फूल बिछाए हमने बिखेरे कांटे उन्होंने राह में
भूल गए वो कि जनाजा तो काँधे पे जाएगा
गुजरेंगी इस राह से कोई बहुत याद आएगा
---------------------------------------------------------
आशिक और शायरों की है अलग पहचान
जानते हैं सब फिर भी बनते हैं अनजान
आशिकी में आशिक बस करते हैं आह आह
पढ़े गजल शायर लोग करते हैं वाह वाह
-----------------------------------------
रेशमा और शेरा बैठे थे नदी किनारे
तभी आ गए दोनों के ससुर बिचारे
देख कर उन्हें दोनों सकपका गए
जान हश्र दिन में तारे नजर आ गए
---------------------------------
अनारकली को जंजीरों का गम न था
सलीम को नीचे तहखानो का इल्म न था
बाप था उसका बहुत ही होशियार
सलीम जैसा शेर हाय हो गया शिकार
------------------------------------
भेज दो शेर अपने ख्वाबों के मंजर से
चुन चुन के तेरे नाम इक गजल लिख दूं
दिल जिगर और जान तेरे नाम कर चुके
तमन्ना है चुन सितारे एक अदब लिख दूं
--------------------------------------
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा ११-१-२०१३
मूँछ
--------
मूँछ की भी अजब कहानी
खिले आनन् दिखे जवानी
कद लम्बा और चौड़ा सीना
पहने उस पर कुरता झीना
चलता राह रोबीली चाल
काला टीका औ उन्नत भाल
कभी तलवार कभी मक्खी कट
छोटी बड़ी कभी सफा चट
बगैर मूँछ लगता चेहरा खुश्क
देख मूँछ खिल उठे मन
कमल पुष्प
नन्हे हाथों पकड़ जब नाती
खींचे
होए दर्द नाना हँसे तब दांत
भींचे
मुस्कराता बालक बहु मंद मंद
जीवन का सच्चा मिलता आनंद
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२४-१२-२०१२
पुकार
---------
साहित्य के सिपाहसालारों
धार लेखनी क्यों पडी मंद
हाहाकार मचा चहुँ ओर
समर भूमि में छिड़ा है द्वन्द
यूँ ही अग़र सोते रहे
लिखेगा कौन इतिहास तुम्हारा
बेवजह तुमको ढ़ोते रहे
बदनाम होगा नाम हमारा
इतिहास तुम्हारा ऐसा न था
रन में वीरों को सींचा था
लिखते कैसे तुम प्रणय गीत
बैरी हुआ जब अपना मीत
सोने वाले तुम कभी न थे
रोने वाले तुम कभी न थे
मत रेंगो तुम अब पड़े पड़े
मौन रहो न अब खड़े खड़े
दुश्मन का न हो पूरा सपना
उठाओ शीघ्र गांडीव अपना
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२३-१२-२०१२
कृषक
---------
कृषि प्रधान भारत अपना फसलों की बहार है
भूख कुपोषण जन है मरते कैसा पालन हार है
खेत से खलिहान तक फैली जिसकी
सरकार है
उसका तो बस नाम
मात्र ईश्वर पालन हार है
काट रहा निश दिन अपने स्वेदाम्बू लिए माथ है
हाथ न आये लाभ उसे कछु भूख मात्र साथ है
काढ़े कर्ज उत्पादन करते सेठ भरे तिजोरी है
बच्चे उसके भूखे मरते
शासन की कमजोरी है
रिकार्ड उत्पादन करते भरते अन्न का भण्डार है
अनीती की नीत बनाती अंधी ये सरकार है
घूमती कृषकाय तन ले पल पल उखड़े श्वास है
बिलख रहे बच्चे भूखे तन पे न उनके गात है
सड़ रहा अनाज बाहर दाने दाने की आस है
करेगा कोई जरूर जतन मन में ये विश्वास है
भूख गरीबी बेईमानी से न कोई रार
है
झेल रही जनता कैसे कैसी ये सरकार है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१९-१२-२०१२
शांति
------
पक्षियों का कलरव
जल प्रपात
समुद्र की गोद में
क्रीड़ारत लहरें
धुआं उगलते कारखाने
फर्राटा भरती गाड़ियाँ
शोर हर तरफ
घुटता दम
इसके बीच हम
नहीं सुनायी देती
नही दिखती
अबला की चीत्कार
भूखे नंगे सिसकते
बच्चे
नफरत की चिंगारी
झुलसते तन
लाशों का ढेर
मानवता का टूटता
दम
कैसे सुने
कैसे दिखे
वक्त नही
भौतिक वाद
आधुनिकीकरण
लिप्सा
आगे जो है
बढ़ना
रह न जाएँ पीछे
पड़े लाशों पे
गुजरना
शान्ति
बड़ी कठिन है
खोजो
मिल भी गयी
कष्टकारी होगी
इन आवाजों को
सहन कर पायेगी ?
खुलते आँख जब
सब दिखने लगेगा
जन्मते बिचारी
दम तोड़ जायेगी
इससे अशांति भली
हत्या का दोष
मैं क्यों लूं
प्रदीप कुमार
सिंह कुशवाहा
२५-११-२०१२
ज़माना
-------------
जनता देखो आया अब कैसा
जमाना
कवि को मना है आज कल मुस्कुराना
लिखने पे पड़ता अब इन्हें जेल जाना
जनता देखो आया अब कैसा
जमाना
--------------------------------------------
न खींचो अब कोई चित्र ये जंतु विचित्र
बैठ कर सदन में खूब मौज लेते सचित्र
ऐसा न था कभी इनका चरित्र पुराना
जनता देखो अब आया कैसा जमाना
------------------------------------------
उजले तन के काले मन के
बैठे देश के रखवाले बन के
जतन करो इनसे देश है बचाना
जनता देखो अब आया कैसा जमाना
---------------------------------------
सुविधाएँ इनको सारी मिलती
३२ रु . में जनता पेट है भरती
मुश्किल हो गया चूल्हा जलाना
जनता देखो अब आया कैसा जमाना
--------------------------------
मेरा पहला ब्याह
(हास्य कविता)
मजदूर व्यापारी
कामगार
शिक्षित हो या
बेरोजगार
होता क्रेज कब हो
सगाई
ब्याह रचे घर आये
लुगाई
यौवन रथ
खड़ा था द्वार
मुझे हो गया उनसे
प्यार
पहले तो घर वाले
भन्नाए
लव मैरिज के गुण
दोष बताये
मिलता न कुछ घर
से जाता
बैरी घर समाज टूटे
हर नाता
पहला ब्याह मेरा
है बापू
चलते बरात या
रास्ता नापूं
लड़की हो लड़का
करते मजबूर
आशिकी करती अपनों
से दूर
लोक लाज न शर्म
से नाता
प्रेम रोग में
केवल प्रेमी भाता
चुप कोने मै बैठी
उठ बोली माई
अरेन्ज मैरिज कर
या बन घर जमाई
करना है जो मैया
जल्दी करना
प्यार किया है अब
क्या डरना
जल्दी से
उसे अपनीबहू बना
आरोप न लगे कैसा
पुत्र जना
माने लोग तब
निकली लगन
सजनी मिलन जान
जियरा मगन
आये पाहुन ले सज
गद्दा रजाई
सजनी द्वार
पहुंचा बरात सजाई
बरात की बात थी
बेरात हो गई
तारों की छाँव
में विदाई हो गई
रोते हुए परिजनों
से खूब लिपटी
अचानक तेजी से बस
ओर झपटी
रुदन बंद देख
पूंछा इतनी जल्दी ब्रेक
तपाक से वो बोली
आदमी हो या क्रेक
अपनी सीमा तक मैं
रोयी अब ये हुई परायी
मैं हंसूंगी
तुम्हें है रोना बनते पति या घर जमायी
निमंत्रण
निमंत्रण कैसा भी
हो
सुखद प्यारा लगता
है
मिलते हैं कई लोग
जग न्यारा
लगता है
नारी शशक्तिकरण
विषय पर
काव्य पाठ का
न्योता आया
जाना था पति
पत्नी को
कंजूस आयोजक ने
एक टिकट भिजवाया
रूठी पत्नी मेरा
जाना
उसे फूटी आँख न
भाया
आशीष दे आयोजक को
मैं मन ही
मन मुस्काया
था विषय अति
गंभीर
पत्नी अगर ध्यान
से सुनती
वापस आ नित उससे
ठनती
मिलना था
प्रशस्ति पत्र
और एक
रेशमी दुशाला
इतना ही पा खुश
हो जाता
ये कवि मतवाला
भरी सभा में रचना
पढ़
ताली खूब बजवाते
टी वी अखबारों
में
फोटो भी छप
जाते
वापस घर आ
मित्रों में
थोथे गाल बजाते
सीना चौड़ा कर
सम्मलेन की बात
बताते
एक कवि को जग में
क्या चाहिए
तपती सड़क नंगे
पाँव
नदी किनारा सूखी
हवा खाइए
दिवस कोई हो
रात्रि में मनाते
हिंदी दिवस
अंग्रेजी में सजाते
यहाँ भी था वो ही
अनोखा चलन
अगले सम्मलेन में
बुलाएँ जाएँ
विषयान्तर कर कवि
पढ़ रहे थे
आयोजकों की शान
में वंदन
मुद्दे पर कविता
किसी ने न सुनाई
कवियत्रियों ने
भी आवाज न उठाई
प्रतीक्षा की घडी
समाप्त हुई
पाठ हेतु मेरी
बारी आई
जैसा देश वैसा
वेश
की नीति अपनाई
विषयान्तर कर
मैने भी कविता
सुनाई
बहार आने पे चमन में फूल खिलते हैं
जब तलक महक औ रंगे जवानी हो
संग चलने दिल मिलने को मचलते हैं
छाती है जब खिजां गुलशने ए बहारां में
पराये तो क्या अपने भी रंग बदलते हैं
था अकेला चला काफिला बढ़ता गया
मकसद एक कभी जुदा जुदा
जमाने का भी अब बदला चलन यारों
मिल गयी उन्हें मंजिले मक़सूद
मील के पत्थर के मानिंद मैं तनहा रह गया
हमारे प्यारे रहनुमा -
बाबा जी
गांधी टोपी पहन के भागे
कुरता पैजामा सिलवाने बाबा जी
कितना प्यारा देश का मौसम जनता
को उल्लू बनाने बाबा जी
कर जोर मांगते भीख वोटन
की पाकर जीत तन
जाते बाबा जी
चोर चोर मौसेरे भाई बैठ
संग देश की लाज लुटाते बाबा
जी
मुन्नी संग कमर मटकाते जेल में राखी
बंधवाते बाबा जी
सर्वस्व न्योछावर करके बाला फिल्मों
में इठलाती बाबा जी
घर में तपन बाहर भी तपन शीतलता कहाँ
पायें बाबा जी
भूख गरीबी अत्याचार आंखन देख न पावें
बाबा जी
सूख गए तरु ताल सरोवर कुँए काहे
खुदवाएं बाबा जी
हरियाली चरने की आये बेला अकेले बैठ
खाएं बाबा जी
होल गेट में मंजन
करते अब बत्तीसी लगवाए बाबा जी
खून पी चुके हड्डी चूस चुके
बचा क्या जो खाएं बाबा जी
“कर लो अब तैयारी”
सूरज की गरमी को देखो, पड़ती सब पे भारी
सूखे ताल तलैया भाई,
पिघली सड़कें सारी
सूख चली देखो हरियाली, सहमा उपवन सारा.
पंथिन को तो छांह नहीं अब,
क्योंकर चलता आरा
पशु पक्षी सब प्यास के मारे,
हुए हाल बेहाल
जल संसाधन मंत्री ए.सी., बैठे फेंके जाल
उनकी बात भी छोड़ो भैया, ऐसा कुछ करवा दो
आँगन अन्दर बाहर तालन, मां पानी भरवा दो
वृहद पौध रोपण की भाई,
कर
लो अब तैयारी
देंगे सब आशीष तुम्हें जो, दुनिया तुम पे वारी
जैसे बचाते अपना जीवन वैसे बचा
अब बारी
जल संरक्षण किया नहीं तो, जल पे मारामारी ||
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
आओ हम सब मिलकर
गायें
ओ.बी.ओ. महान है
भटकते फिरते जो
ज्ञान की खातिर
उनके लिए वरदान
है
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
..२ बार
गजल छन्द कई
भाषाओँ के उपलब्ध विधान हैं
कहानी
कविता का मिलता यहाँ सम्यक ज्ञान है
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
नए पुराने धर्म
जाति का न कोई भेद है
भिन्न भिन्न विधा
है सबकी आपस में एक हैं
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
लिखो कविता या
कहानी श्रेष्ठ को मिले पुरूस्कार है
नहीं होती किसी
को ईर्ष्या ऐसा सुखी परिवार है.
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
प्रीतम और रवी का
पौधा सींचते बागी हैं
बड़े बड़े दिग्गज
यहाँ साहित्य सुधा के रागी हैं
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
आओ सब मिलकर ऐसी
अलख जगाये हम
साहित्य समरसता की पावन गंगा बहायें हम
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
कई भाषाओँ और
विधा में पारंगत गुरु विद्या दान करें
माँ भारती , सरस्वती संग ओ.बी.ओ. का गुण गान करें
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
...२ बार
जय ओ.बी.ओ. , जय हिंद, वन्दे मातरम्
वतन के लिए
भुजंग
तुम
वतन के लिए
व्याल हम
वतन के लिए
कलंक तुम
वतन के लिए
तिलक हम
वतन के लिए
दुश्मन
हो
वतन के लिए
ढाल हम
वतन के लिए
हार तुम
वतन के लिए
जीत हम
वतन के लिए
जीना है
वतन के लिए
मरना है
वतन
के लिए
शांति है
वतन
के लिए
क्रांति है
वतन
के लिए
हम एक हैं
वतन
के लिए
राजगुरु भगत सुखदेव है
वतन
के लिए
आजाद थे आजाद है आजाद रहेंगे
वतन
के लिए