Friday 18 October 2013

पिकहा बाबा उवाच ------ मदद- इसकी आदत डालें//कुशवाहा //


पिकहा बाबा उवाच  ------ मदद- इसकी आदत डालें//कुशवाहा //

            पहले के समय में समर्थ व्यक्ति अपनी सम्पत्ति से धर्मशाला, तालाब, कुऐं, शिक्षण पाठशालायें  इत्यादि बनवाता था। आज के समय में लोग एक संगठन बना कर धनराशि , सामग्री इत्यादि समाज से लेकर सेवा कर रहे हैं परन्तु सरकार से अनुदान लेना मैं ठीक नही समझता। क्यों कि इस प्रकार से एकत्रित धन से वे अपने आवागमन, कार्यालय की आधुनिक सुख सुविधाओं की भी पूर्ति करते हैं। यद्यपि इस कार्य में कोई बुराई नही है क्यों कि इनके द्वारा की गई सेवा का कुछ न कुछ लाभ समाज को  मिलता ही है। 
जब भी कोई जीव पहली बार धरती पर जन्म लेता है तो ईश  कृपा, दायी, या जो भी यथा स्थिति के अनुसार निकट उपलब्ध रहता है उसका सहयोग प्राप्त होता है। शिशु  अवस्था से शरीर के अन्त के बाद तक परिवार, निकटस्थ कुल मिला कर समाज का सहयोग प्राप्त होता है। इस प्रकार देखा जाय तो कहीं न कहीं कोई किसी की मदद लेता है और करता भी है। हमारा भी दायित्व है कि इस समाज के लिये आवश्यकता  पडे़ या न पडे़ पात्र व्यक्ति की मदद की जाय।
मैं तो सोचता हॅूं कि मदद भले ही हम किसी की न कर सकें फिर भी प्रातः उठते ही मन में विचार अवश्य  लाना चाहिए कि आज कुछ अच्छा काम किया जाय, किसी की मदद की जाय। यह विचार मात्र ही जीवन के लिये उनकी तुलना में लाभ कर है जो समाज सेवा के नाम पर दूकाने चला रहे हैं। मदद करने के लिये जरुरी नही है कि किसी संस्था की सदस्यता ली जाये, धनराशि  इत्यादि का दान किया जाय। यदि प्रतिदिन प्रातः हम किसी की मदद, अच्छे कार्य का विचार मन में बगैर ऐसा किये भी लाते रहे तो निश्चय  ही एक दिन हम जाने अनजाने किसी की मदद कर ही बैठेंगे।
            मदद तीन प्रकार से की जा सकती है। मन से, वचन से, करम से।
            स्वस्थ्य मन में स्वस्थ्य चिंतन होगा। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव अपने मन मन्दिर में स्थापित करना होगा। आपके आभा मण्डल मे प्रस्फुटित किरणें किसी की मदद करने को स्वतः प्रेरित  करेंगी, फिर ऐसा करने को मन में वचन देना होगा फिर ईश्वर  प्रदत्त करम भावना के साथ कर्म करना होगा।
            सब से पहले अपनी मदद करें। अपने तन, मन को स्वस्थ्य रख कर। यदि तन स्वस्थ्य है तो बाकी काम स्वतः आसान हो जाता है। क्यों कि आप को अपने शरीर की बीमारी इत्यादि की चिन्ता से मुक्ति रहेगी और स्वस्थ्य तन में स्वच्छ मन को सरलता से स्थापित किया जा सकता है। आप सोचते होंगे कि ऐसा क्या है कि स्वस्थ्य तन में स्वच्छ मन स्थापित करने की आवश्यकता  क्या है। आप जानते है कि यदि ऐसा विचार न स्थापित किया जाय तो मन समाज के प्रति अपराध करने की दिशा में भी जा सकता है। सोच सदैव सकारात्मक होनी चाहिए ये स्वयं के लिये और साथ ही समाज के प्रति लाभकर होगी। मन में सदैव त्याग की इच्छा और प्रतिफल में कुछ पाने की यदि इच्छा जागृत न हो तो समाज के प्रति कुछ किया गया कार्य समाज के साथ-साथ अपने जीवन को धन्य कर सकता है।
            मन कितना चंचल है इसे बताने की आवश्यकता  नही है इसके रथ को साधना सामान्य जनों के वश  में नही है। कभी इधर कभी उधर। इसकी गति को नापा भी नही जा सकता। फिर यह मान कर चुप नही बैठ जाना चाहिए कि यह काम साधारण व्यक्ति नही कर सकता केवल योगियों के ही वश  का है। ऐसी भावना आपके मन को दूषित ही करेंगी आत्म विश्वास  में कमी लायेगी। क्यों कि ऐसा जीवन में कोई काम नही है जो प्रभु जी की कृपा से पूर्ण न किया जा सके। यदि मन में यह विचार आ जाय कि अमुक कार्य बहुत कठिन है उसको मैं नही कर सकता तो जीवन अत्यन्त कठिन हो जायगा। यदि यही विचार व्यक्ति के मन में रहा होता तो जितने बड़े बडे़ कार्य इस युग में लोगों द्वारा किये गये है और हो रहे है वे कदापि न होते और आज भी हम पाषाण या जो भी काल हो उसी काल के वातावरण में रह रहे होते। जितना विकास कार्य कर्मठ व्यक्तियों के प्रयास से हुआ है उन सुखों का लाभ कैसे हमे मिलता। इस लिये कर्म तो आवश्यक  है वो भी लगन, निष्ठा व समपर्ण के साथ। अतः मन को दृढ़ करना ही होगा। साधारणतयः हम योगी नही हो सकते परन्तु जब भोगी हो सकते हैं तो योगी बनने में कौन सी रुकावट है? मात्र एक दृढ़ निश्चय ही  तो करना है। मेरी दृष्टि में प्रत्येक जीव योगी है। योगी भाव को विस्तृत रुप में लिया जाना चाहिए। जब से जन्म लिया तब से आज तक हम वैसे तो नही रहे। प्रतिदिन कुछ न कुछ परिवर्तन तो अपने में आया ही है। आज की स्थिति में पहुँचने  मे चाहें जो मन ने चाहा वो न कर पाये हो या इच्छा के अनुरुप उपलब्धि न हो सकी हो परन्तु वो स्थिति तो नही रही जो जीवन के प्रारम्भ में थी। यह स्थिति प्राप्त करने में किसका प्रयास है। निश्चय  ही जैसे-जैसे शैशव अवस्था से बाल्यकाल और आगे की जो भी स्थिति हो को प्राप्त होते गये वैसे ही वैसे मन की स्थिति, विचार और पुरुषार्थ से ही तो आज की स्थिति को प्राप्त हुए हैं। कहीं न कहीं तो मन को नियंत्रित किया होगा, कहीं न कहीं तो पुरुषार्थ किया होगा। तो इसी प्रकार अनवरत प्रयास से मन को स्थिर करते हुए सद्मार्ग पर चलते हुए अपने अभीष्ठ लक्ष्यों की पूर्ति क्यों न की जाय।
            मन की चंचलता का बहाना कर्मयोगी के लिए कदापि ठीक नहीं है। जिसका स्वभाव जैसा है वो वैसा ही रहेगा। हाँ  सतत अभ्यास और केन्द्रित प्रयास से उसमें भारी परिवर्तन लाया जा सकता है। इच्छा शक्ति एवं दृढ़ संकल्प शक्ति हमारे जीवन की दिशा  एवं दशा  दोनों बदल सकती है। हमारी सफलता तो इसी बात पर निर्भर करती है कि जिस उद्देश्य  की पूर्ति हेतु हम प्रयासरत हैं, हम उसे कैसे नियंत्रित करते हैं और क्या कर्म करते हैं। किसी भी वस्तु के प्रयोग हेतु उसके गुण दोषों के बारे में जानना व उसके अनुसार अपने जीवन में व्यवहार में लाना एक कला है। कुछ में कलाऐं जन्मजात होती हैं और कुछ अपने पुरुषार्थ से उसे ग्रहण कर दक्षता प्राप्त करते हैं। मन की उड़ान विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक  है। जब तक कल्पना नही करेंगे, स्वपन नही देखेंगे तो विकास कैसे होगा।
            यह प्रश्न  स्वभाविक है, जिज्ञासा भी है कि कैसे मदद की जाय। कौन सा प्लेटफार्म चुना जाय, क्या उन लोगों से सम्पर्क किया जाय जो समाज में विभिन्न प्रकार से सेवा दे रहे हैं। निश्चित  तौर पर ऐसा करने में कोई बुराई नही है जब ऐसे साधु पुरुषों के सानिध्य में जायेंगे तो हिचक भी खुलेगी व मार्गदर्शन  भी प्राप्त होगा, परन्तु जिस प्रकार हर कार्य के करने में सावधानी की जरुरत होती है यहाँ  भी सतर्क रहना है और ऑंखें  खुली रखनी है। अन्ध भक्ति और अन्ध विश्वास  सदैव घातक होता है। क्यों कि यह विश्वास  रखना चाहिए कि कभी जो दिखता है वो होता नही है और जो नहीं दिखता है वह होता है। ईश्वर  ने हमें अन्यों की तुलना में एक अस्त्र दिया है वो विवेक है। यह अस्त्र सदैव खुला रखना चाहिए।
आप ने अनुभव किया होगा जब आप किसी कार्य को करने चलते हैं तो अन्तर्मन उस पर प्रश्न  करता है, तर्क विर्तक करता है कि यह कार्य किया जाय या न किया जाय। निर्णय लेने हेतु यही समय आपके लिये सबसे कठिन होता है। अपने विवेक और अन्तरात्मा की आवाज को सदैव प्राथमिकता देंगे तो  आप गलत कार्य करने से बच जायेंगे और इस प्रकार आपके द्वारा लिया गया निर्णय आपके और समाज के  प्रति सदैव लाभकर रहेगा बस त्यागना होगा स्वयं का स्वार्थ और अभिमान। निश्चित विश्वास  मानिये यदि आप किसी के प्रति अच्छा सोचेंगे, अच्छा करेंगे तो प्रतिफल में आप किसी सुख की प्राप्ति से वंचित कदापि नही हो सकते। पर यह बात भी ध्यान रखनी है कि यदि आप ने अपने कर्म के बदले कुछ प्राप्ति की अपेक्षा की, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है तो निश्चित  मानिए  आप गलत सोच रहे हैं क्यों कि फल की इच्छा किये बिना, किया गया कर्म श्रेष्ठ है जो दुखों से दूर रखता है। यदि प्रतिफल में आपने किसी से अपेक्षा की और उसकी पूर्ति न हुई तो आपका मन दुखी होगा और आप अवसादग्रस्त हो सकते हैं। आपका कार्य और श्रम तो व्यर्थ जायेगा और जो नकारात्मक सोच आपके अन्दर पैदा होगी उससे हानि के अलावा क्या मिलेगा। इससे अच्छा है कि आप ऐसा कर्म ही न करें, पर यह समाज के प्रति कृत्घनता होगी।
मेरी दृष्टि में इस दुर्गुण से बचने का उपाय है कि सेवा के लिये मन में वचन देना होगा। दृढ़  विश्वास  और दृढ़ संकल्प के साथ जब हम मैदान में उतरेंगे तो कभी भी सन्मार्ग से भटकेंगे नही। यह सत्य है कि प्रकृति का नियम है लेना और देना, जो बोयेंगे वही काटेंगे। क्या हम यह नही कर सकते कि केवल दें और ले न ? ऐसा करके देखने में हर्ज ही क्या है। कर के देखिये। अपार सुख, अपार आनन्द, अपार शान्ति की प्राप्ति हो तो इसे भी समाज में बांटिये । 
आपके मन में यह विचार अवश्य  आया होगा कि मैने मदद करने के लिये मन ,वचन और करम को प्राथमिकता दी है परन्तु कर्म को स्थान नही दिया। मैं शब्दों के भॅवर जाल में नही जाना चाहता क्यों कि बगैर कर्म कुछ भी नही है। पर जिस प्रकार ईश्वर  अपने प्राणियों पर करम करता है वैसा ही भाव लेकर हम भी ईश्वर  द्वारा रचित रचना के प्रति भाव रखें और कर्म करें।
क्रमश .....
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

१६-५-२०१३ 

पिकहा बाबा ----प्रेस वार्ता

पिकहा बाबा ----प्रेस वार्ता
हे नाती बाबू एहर सुना देखा अंतरजाल आश्रम पर काफी भीड़ इकट्ठी होएला. का  माजरा  बा ?
सुना नाना जी कौनो चिंता न किये . ई सब चारों स्तंभ के लोग इकठ्ठा कियेला . आज तोहरा प्रेस वार्ता का आयोजन बा .
देखा नाती हमका चरका न देवा . २ महीना हो गईला हमरे अवतार का रोजे रोज दांव होएला. कौनो हमरे पास न आवेला. न जाने सब कहाँ बिजी बा . बड़ा मनेजमेंट गुरु बनेला. इतना मा तो हम पूरे  देश की सरकार कई बार बदलवा देते. 
नाना ज्यादा शेखी ठीक न बा . ३ स्तंभ तो एश कर रहे हैं. चौथे स्तंभ को बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है . बहुत व्यस्त हैं. धरा  -६६ की घुट्टी से घबराए हैं. 
क्या बात करते हो नाती, ये काहे घबरावत हैं. ये तो महामुनी नारद के वंशज हैं. कवि की कल्पना से तेज हैं. बेड रूम तक इनकी पहुँच है. नारद जी को तो कभी अपमान नही सहना पड़ा. क्या ये अपनी मर्यादाएं लांघ रहे हैं. 
अच्छा नाना चुप रहो, बड़ी मुश्किल से इकठ्ठा किया है. बिदक गए तो ऐसे ही  तड़पोगे. कई बार इनके आयोजन पर की गयी सारी व्यवस्था बेकार चली गयी है. वैसे भी  बाबाओं के इतने चर्चे हो गए हैं कि ये उनकी कवरेज से डरते हैं. कहीं बाबा अपने कोमल हाथ से चित्र लेने वाले के गाल  पर अपने हाथ का चिन्ह न छाप  दे .
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उपस्थित चारों स्तंभ के महानुभावों , आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं स्वागत है. ये प्रेस वार्ता मेरे द्वारा  आयोजित है . वार्ता सामग्री आपको दी जा चुकी है .प्रश्न उसी के अनुसार होने चाहिए. मैने बहुत प्रयास किया की आपको कष्ट न दूं. अपने कई चॅनल खोल लूं. पर बहुत महंगे पड़ रहे थे. आशा है कि  आप मेरी बात समझ गए होंगे.. 
पत्रकार---
आप बाबा हैं और आपका ये रूप, बिलकुल साधारण. कोई विशिष्ट विन्यास नही?
बाबा ....
वस्त्र विन्यास , केश विन्यास ? इस विशिष्टता की  मुझे क्या आवश्यकता . देश में विशिष्ट जनों कि कमी है क्या. हर क्षेत्र में भरे पड़े हैं . सामान्य वस्त्र , सामान्य रूप एक आम आदमी जैसा . उन्ही के बीच का. आवश्यकता पड़ने पर उन्ही के बीच खप जाऊं . वस्त्र बदल के रूप न बदलना  पड़े . 
मैं आम आदमी हूँ , आपका हूँ. 
पत्रकार .....
बाबा आपने अपना आश्रम अंतरजाल पर क्यों बनाया है ? क्या धरती पर आपको जमीन  नहीं मिली ?
बाबा ....
सबसे सुरक्षित स्थान है. पलक झपकते ही सब से संवाद की सुविधा. नीचे  बड़ी हाय तौबा मची है. जमीन  घोटाला, संम्पत्ति घोटाला न जाने क्या क्या. 
पत्रकार ....
पर बाबा इस समय तो अंतरजाल पर ही सबसे बड़ा खतरा है. वो धारा ६६- घुट्टी. 
बाबा ..
बात तो सही कह रहे हैं आप पर ये बनी तो ठीक है पर इसका दुरुपयोग ठीक नहीं है. 
पत्रकार ...
धरती पर आप कैसे कार्य करेंगे जब कि आप अन्त्योदय के लिए अवतार लिए हैं. 
बाबा ...
धरती पर मैं पद यात्रा करूँगा. गांव - गांव जाऊँगा. जो सम्पन्न लोग हैं उनके पास जा कर निवेदन करूँगा कि आप जो कर रहे हैं उससे मेरा कोई मतलब नहीं . बस आप इन गरीबों का ध्यान कीजिये. इनका हक न मारा जाये. निश्चित ही  वे मेरे निवेदन को मान देंगें.
पत्रकार ...
देश की वर्तमान राजनीति के बारे में क्या कहना है ?
बाबा ......
मेरी कथनी करनी में अंतर नहीं पायेंगे . पूरा एजेंडा आपको दिया है. जब समाज के लोग वास्तविक रूप से शिक्षित होंगे. उनके पेट भरे होंगे. तभी वे राष्ट्र के बारे में नैतिक जिम्मेदारी हेतु सजग हो पायेंगे. अभी तो कांच के टुकड़ों की तरह धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद में जकड़े हुए हैं. खुद भी घायल और इनको छूने वाला भी घायल. राजनीति जिनका काम है वो करे. न अंदर से न बाहर से समर्थन या विरोध. गुड खाए और गुलगुलों से परहेज.
पत्रकार ...
बाबा जी आपके उद्देश्य की पूर्ती हो, जल्दी ही आपसे भेंट होगी. 

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 


नाना नाती उवाच ——-पिकहा बाबा अवतार

                           नाना नाती उवाच ——-पिकहा बाबा अवतार
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नाना नाना ई बतावा फिर कौनो  बात हो गई
चेहरा काहे लटकौले नानी से मुलाक़ात हो गई
चुप रहो नाती न बोलो पकड़ो   ई दस रुपिया
दोनों ओर आग लगावत नानी के तुम खुफिया
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नानी खफा बहुत हमसे ढूंढ रही वो बेला
कौन बनाया लेखक हमको  इंटरनेट  पे ठेला
इंटरनेट  पे ठेला बैठ अनगिनत बीमारी पाई
धेला  मिला न एक कहीं से नाहक गोली खाई
धधा कोई और सोचते साहित्य बड़ा झमेला
पानी बंद लौकी खाते सवेरे नित पीते  करेला
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नाना देखो समय कम हो रहे तुम अब रिटायर
बनो देश के नेता अभिनेता बेकार हैं अब शायर
हाथ जोड़ नेता जनता में  बड़े प्रेम से   आते
पीते खून उसी जनता का लौट दुबारा  न जाते
भरते झोली नोटन वोटन से सैर विलायत करते
सात पीढ़ी की करते व्यवस्था हवा में डग भरते
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न न  नाती माफ करो मुझसे ना होगा ऐसा गोरख धंधा
जीवन सादा सचरित्र जिया पैसा देख हुआ कभी  न अंधा
दीन दुखी मेरे हैं अपने अभी पूरे  करने शेष अधूरे सपने
भूख गरीबी बलात्कार रंग जाति  भेद के नाग लगे डसने
प्रश्न जटिल उलझी गुत्थी  छाया चहुँ दिस घन  घोर अँधेरा
क्या करूँ कैसे करूँ राह न सूझे  कब होगा जीवन में  सवेरा
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सुनो ध्यान से नाना एक बात क्यों नाहक मेरा सर खाते
करो समाज सेवा हर विधि क्यो न  साधू बाबा बन जाते
बरसों का अनुभव तुम्हारा नीति  रही जन कल्याण कारक
दरिद्र नारायण सेवा कर दुष्टन से रक्षा करो बन अस्त्र मारक
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अक्टूबर ०६ , २०१२ को पिकहा बाबा लीन्ह मनुज अवतार
जन सेवा रत इंटरनेट पे सदा मिलें  लें आशीष करें भवपार
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 


दीवाली कैसे मनाएं

                                  दीवाली कैसे मनाएं
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टपकते न आँख से आंसू
बह रहा उनसे लहू
गृह शोभा बन जो आयी
घर घर जले वही बहू
दहेज़ दानव जब तक न जले
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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नारी नारी भेद करती
पुत्री  बजाये पुत्र चुनती
दोनों श्रष्टि संतुलन कारक
भ्रूण हत्या कर बनती मारक
लिंग भेद जब तक न मिटे
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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टूटती रिश्तों की डोर
जाग मानव हुई भोर
काला तन कलुषित मन
सुन्दर बना अपना जीवन
प्रेम गंगा धार जब तक न बहे
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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एक धरती एक गगन
सुन्दर है अपना चमन
धरती पर गिरा ये लहू
एक रंग किसका कहू
भेद भाव जब तक मिटे न
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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नफरत की आग में
जाने क्यों जल रहे
करना था हमें क्या
न जाने क्या कर रहे
हैवान जब तक इंसान न बने
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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जगमगा  रहा नगर
वीरान पडी बस्तियां
भूख गरीबी अत्याचार
बलात्कार शोषित नारियाँ
दानव जब तक मानव न बने
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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चीर कर धरती का सीना
श्रम  सींकर  से सिंचित करे
भरते सेठ अपनी झोलियाँ
कृषक तिल तिल भूखा मरे
उपज का उचित मूल्य जब तक न मिले
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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हरी भरी थी  वसुंधरा
काट  रहे वन उपवन
कर रहे पानी को मैला
जल का हो रहा दोहन
प्राकृतिक संपदा की जब तक हो न रक्षा
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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सुसंसकृति सह्रदयता सुन्दर संस्कार
खोज मानव की अनोखी भ्रष्टाचार
दे मान बढ़ाई शान वे बने भगवान
पाप करते पुन्य कहते मर रहा इंसान
रावणों का बोझ जब तक धरा से न हटे
कैसे दिवाली मनाएं हम
आओ ज्ञान दीप जलाएं हम
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दीपावली की  सपरिवार हार्दिक शुभ कामनाएं.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा



Wednesday 16 October 2013

होली आई रे



नीला   रंग अम्बर पे धरा हरियाली छायी है 
फीकी पड़ी वसंत बयार लगे होली आयी है 
चहके कानन फूला उपवन चली पवन मतवाली है 
पुलकित तन  बहके मन आनन् पे  छायी लाली  है 
फीकी पड़ी वसंत बयार .........
अमराई फूली सरसों फूली डार डार कोयलिया कूकी 
चातक पपीहा विरही प्रियतमा पिया मिलन हिय हूकी 
फीकी पड़ी वसंत बयार .........
पिया मिलन की आस लगाये निश दिन  स्वप्न सजाये 
जबसे चली मस्त  फगुआ बयार प्रियतम की याद सताए 
फीकी पड़ी वसंत बयार .........
आई गयी प्रिय,  कितनी ऋतू बीतीं  करती रही इंतजार 
दर्पण धूमिल , नैना अश्रु पूरित तुम  बिन अधूरा श्रृंगार 
फीकी पड़ी वसंत बयार .........
आस जगी  तन मन  प्यास  जगी  नयन   तके  हैं   द्वार 
 आना  अबकी  तो  फिर न  जाना  किये  हूँ  सोरह  श्रंगार  
 फीकी पड़ी वसंत बयार .........
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा