प्रेम कहानी
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जाड़े की रात , घना कोहरा , हाथ को हाथ सुझाई न दे , कडकडाती ठंड . छोटी सी मडैया में बने चाय के होटल में सिकुड़ा राकेश , कई गिलास चाय हलक के नीचे उतार चुका था मगर कँपकपी थमने का नाम ही न ले रही थी . खत्म होती सिगरेट का आखिरी सिरा दोनों अँगुलियों के मध्य कुछ देर गर्मी जरुर देता . कोने में रखे पुराने रेडियो से खड़ - खड़ की आवाज के बीच आते पुराने गीत बरबस राकेश का ध्यान कुछ देर के लिए जरुर खींच लेते .
एक गहरा कश और सिगरेट का अंत . कड़वी सी मुस्कराहट आई और गयी रात के अँधेरे में . अँधेरा भी न जान पाया .
राकेश ने घडी पर नजर डाली अभी रात के ११ ही तो बजे थे . यादों के ताने बाने में उलझी जिंदगी . जीवन का बड़ा भाग यहीं तो बीता था.राकेश का. होटल एक घर जैसा ही हो गया था . यहाँ आते जाते लोग, उनसे थोड़ी बहुत चुहुल , चाय , सिगरेट हर चीज सुलभ थी . घर पर सिवा तन्हाई के कुछ न था . हाँ केवल एक ही साथी था जो प्रतीक्षा करता था प्यारा '' भोलू '' प्यारा कुत्ता . सुख दुःख का साथी . हाँ वो भूखा होगा . खाने की कुछ सामग्री बँधवा कर राकेश चलने को ही हुआ था कि रेडियो से आते एक गीत ने बरबस उसके बढे कदमो को रोक दिया. वह वापस एक सिगरेट जला होंठों के मध्य दबा कर बैठ गया . कडवे धुएं से उसकी आँखें सिकुड गयीं और आँखों के कोर से पानी टपकने लगा .
'बेदर्दी बालमा तुझे मेरा मन याद करता है'' धीरे - धीरे गीत के बोल दिल में उतरते चले गए और भावनाये सिगरेट के गोल छल्लों के बीच भिन्न - भिन्न आकृति ले उड़ने लगीं . खो गया पुरानी यादों में वर्षों पहले ----
अस्वाभाविक तों नही , युवावस्था की दहलीज पर पाँव पड़े और विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण जागृत न हो। मैं भी अछूता न रहा। प्यार हो गया था अपनी हम उम्र बाला से। सच्चा प्यार , अनोखा प्यार , वासना रहित।
'अनु ' हाँ यही तो नाम था। छोटा कद , रंग गोरा , गोल चेहरा , स्कर्ट में बहुत अच्छी लगती। लाल रिब्बन से बंधे उसके बाल आकर्षण का मुख्य केंद्र बिंदु। वो मेरे सहपाठी मित्र महेश के घर के पास ही रहती थी . जब भी मैं महेश के घर जाता तों ज्यादा चर्चा अनु के बारे में ही करता . कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नही छिपती, फिर यहाँ मैं कैसे बचता .
महेश और अनु का परिवार पूर्वांचल का ही था और जाति भी एक ही थी . इसलिए महेश के साथ अनु के घर आने जाने में कोई प्रतिबंध किसी भी ओर से न था। दिन रात गुजरने लगे. जाति बिरादरी भी एक। सब कुछ ठीक। मेरा झुकाव अनु के प्रति है ये बात शीघ्र ही महेश ने महसूस कर ली थी. गलती मेरी ही थी .अनु से मिलने की बेताबी के कारण अब मै जब भी महेश के घर आता तो उस से पहले अनु के घर जाता था .अनु के प्रति मेरे झुकाव से मेरे घर वाले भी अनजान नही थे .
''महेश , बाबू जी कह रहे हैं कि अब मेरे ब्याह की उम्र हो गयी है , कहीं और शादी करनी हो तो बताएं नही तो किसी अच्छे रिश्ते को बंधन दे दिया जाए तुम तो मेरे और अनु के प्यार के बारे में जानते ही हो . अनु से भी बात कर ली है . शायद अनु अपने माता - पिता से यह बात न कह सके . तुम अनु के माता - पिता से सारी बात बताते हुए रिश्ते की बात चलवा दो ''
सिलसिले को बढाते हुए सर्व प्रथम अनु के माता पिता के पास प्रस्ताव भिजवाया । इसमें मित्र महेश की मदद ली गयीं। ऐसा इसलिए किया गया कि यदि कोई बात अन्यथा हो तो हम लोगों में से किसी की भावना आहत न हो।
समय बीतने लगा। मुझ पर माता - पिता का दवाब बढ़ने लगा. रोज ही कहा जाने लगा कि पूछो उन लोगों से शादी करनी है या नही , नही तो किसी अगले को मौका दिया जाए। बात सही थी , स्थिति स्पष्ट करनी जरूरी थी। माँ - बाप का एकलौता पुत्र होने के कारण मेरा लालन - पालन राजकुमार की तरह हुआ था , अपनी आवश्यकताओं / स्वार्थ को त्याग कर , मेरा भी फर्ज बनता था कि मुझे भी उनके लिए त्याग करना चाहिये ?
मैने अनु को दिनांक निर्धारित करते हुए १२ बजे तक अंतिम फैसला सुनाने को कहा। फैसले की अंतिम घडी में मैं उसके ही घर में उसके सामने बैठा इन्तजार करता रहा कि वो क्या कहेगी। वो चुप रही , मैं चुप रहा। क्या कहती वह ? घडी चलती रही। उसकी टक - टक मेरे दिल की धड़कन को ताल दे रही थी। समय सीमा समाप्त हुई , चल दिया एक नयी दुनिया बसाने। माता - पिता का ऋणी जो था ।
अनु के माता - पिता आश्वस्त न हो सके कि हम क्षत्रिय हैं या नही , विवाह हेतु इनकार कर दिया। वे पूरब के थे और हम पश्चिम के।
याद नही कि मैने अपनी शादी में उसे बुलाया था या नही , हाँ वो मेरा घर ढूंढते हुए अपनी शादी का निमंत्रण पत्र देने अवश्य आयी थी , शादी के बाद भी संपर्क बना रहा।एक अच्छे मित्र की तरह . आज पता नही कहाँ है वो। वो अपने ब्रेन के आपरेशन होने के बाद मेरे घर आयी थी उसके बाद ?
मेरी नज्में, अधूरी डायरी चली गयी। . दोस्त महेश के साथ।
ठक- ठक मेज पर जोर की आवाज के साथ होटल मालिक बाबू लाल की आवाज के साथ मेरी तंद्रा भंग हुई, ' ''बाबू जी सवेरे के चार बज गए हैं , घर नही जाना . दूध भी खत्म नही तो चाय ही पिला देता ''.
'' बाबू लाल , यहाँ तों जिंदगी ही खत्म हो गयी , अनु के साथ .''
यादे आज कचोट गयीं फिर से।
''बेदर्दी बालमा तुझे मेरा मन याद करता है''।
अनु ----
सदा करता रहेगा आँखें बंद होने तक।
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
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जाड़े की रात , घना कोहरा , हाथ को हाथ सुझाई न दे , कडकडाती ठंड . छोटी सी मडैया में बने चाय के होटल में सिकुड़ा राकेश , कई गिलास चाय हलक के नीचे उतार चुका था मगर कँपकपी थमने का नाम ही न ले रही थी . खत्म होती सिगरेट का आखिरी सिरा दोनों अँगुलियों के मध्य कुछ देर गर्मी जरुर देता . कोने में रखे पुराने रेडियो से खड़ - खड़ की आवाज के बीच आते पुराने गीत बरबस राकेश का ध्यान कुछ देर के लिए जरुर खींच लेते .
एक गहरा कश और सिगरेट का अंत . कड़वी सी मुस्कराहट आई और गयी रात के अँधेरे में . अँधेरा भी न जान पाया .
राकेश ने घडी पर नजर डाली अभी रात के ११ ही तो बजे थे . यादों के ताने बाने में उलझी जिंदगी . जीवन का बड़ा भाग यहीं तो बीता था.राकेश का. होटल एक घर जैसा ही हो गया था . यहाँ आते जाते लोग, उनसे थोड़ी बहुत चुहुल , चाय , सिगरेट हर चीज सुलभ थी . घर पर सिवा तन्हाई के कुछ न था . हाँ केवल एक ही साथी था जो प्रतीक्षा करता था प्यारा '' भोलू '' प्यारा कुत्ता . सुख दुःख का साथी . हाँ वो भूखा होगा . खाने की कुछ सामग्री बँधवा कर राकेश चलने को ही हुआ था कि रेडियो से आते एक गीत ने बरबस उसके बढे कदमो को रोक दिया. वह वापस एक सिगरेट जला होंठों के मध्य दबा कर बैठ गया . कडवे धुएं से उसकी आँखें सिकुड गयीं और आँखों के कोर से पानी टपकने लगा .
'बेदर्दी बालमा तुझे मेरा मन याद करता है'' धीरे - धीरे गीत के बोल दिल में उतरते चले गए और भावनाये सिगरेट के गोल छल्लों के बीच भिन्न - भिन्न आकृति ले उड़ने लगीं . खो गया पुरानी यादों में वर्षों पहले ----
अस्वाभाविक तों नही , युवावस्था की दहलीज पर पाँव पड़े और विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण जागृत न हो। मैं भी अछूता न रहा। प्यार हो गया था अपनी हम उम्र बाला से। सच्चा प्यार , अनोखा प्यार , वासना रहित।
'अनु ' हाँ यही तो नाम था। छोटा कद , रंग गोरा , गोल चेहरा , स्कर्ट में बहुत अच्छी लगती। लाल रिब्बन से बंधे उसके बाल आकर्षण का मुख्य केंद्र बिंदु। वो मेरे सहपाठी मित्र महेश के घर के पास ही रहती थी . जब भी मैं महेश के घर जाता तों ज्यादा चर्चा अनु के बारे में ही करता . कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नही छिपती, फिर यहाँ मैं कैसे बचता .
महेश और अनु का परिवार पूर्वांचल का ही था और जाति भी एक ही थी . इसलिए महेश के साथ अनु के घर आने जाने में कोई प्रतिबंध किसी भी ओर से न था। दिन रात गुजरने लगे. जाति बिरादरी भी एक। सब कुछ ठीक। मेरा झुकाव अनु के प्रति है ये बात शीघ्र ही महेश ने महसूस कर ली थी. गलती मेरी ही थी .अनु से मिलने की बेताबी के कारण अब मै जब भी महेश के घर आता तो उस से पहले अनु के घर जाता था .अनु के प्रति मेरे झुकाव से मेरे घर वाले भी अनजान नही थे .
''महेश , बाबू जी कह रहे हैं कि अब मेरे ब्याह की उम्र हो गयी है , कहीं और शादी करनी हो तो बताएं नही तो किसी अच्छे रिश्ते को बंधन दे दिया जाए तुम तो मेरे और अनु के प्यार के बारे में जानते ही हो . अनु से भी बात कर ली है . शायद अनु अपने माता - पिता से यह बात न कह सके . तुम अनु के माता - पिता से सारी बात बताते हुए रिश्ते की बात चलवा दो ''
सिलसिले को बढाते हुए सर्व प्रथम अनु के माता पिता के पास प्रस्ताव भिजवाया । इसमें मित्र महेश की मदद ली गयीं। ऐसा इसलिए किया गया कि यदि कोई बात अन्यथा हो तो हम लोगों में से किसी की भावना आहत न हो।
समय बीतने लगा। मुझ पर माता - पिता का दवाब बढ़ने लगा. रोज ही कहा जाने लगा कि पूछो उन लोगों से शादी करनी है या नही , नही तो किसी अगले को मौका दिया जाए। बात सही थी , स्थिति स्पष्ट करनी जरूरी थी। माँ - बाप का एकलौता पुत्र होने के कारण मेरा लालन - पालन राजकुमार की तरह हुआ था , अपनी आवश्यकताओं / स्वार्थ को त्याग कर , मेरा भी फर्ज बनता था कि मुझे भी उनके लिए त्याग करना चाहिये ?
मैने अनु को दिनांक निर्धारित करते हुए १२ बजे तक अंतिम फैसला सुनाने को कहा। फैसले की अंतिम घडी में मैं उसके ही घर में उसके सामने बैठा इन्तजार करता रहा कि वो क्या कहेगी। वो चुप रही , मैं चुप रहा। क्या कहती वह ? घडी चलती रही। उसकी टक - टक मेरे दिल की धड़कन को ताल दे रही थी। समय सीमा समाप्त हुई , चल दिया एक नयी दुनिया बसाने। माता - पिता का ऋणी जो था ।
अनु के माता - पिता आश्वस्त न हो सके कि हम क्षत्रिय हैं या नही , विवाह हेतु इनकार कर दिया। वे पूरब के थे और हम पश्चिम के।
याद नही कि मैने अपनी शादी में उसे बुलाया था या नही , हाँ वो मेरा घर ढूंढते हुए अपनी शादी का निमंत्रण पत्र देने अवश्य आयी थी , शादी के बाद भी संपर्क बना रहा।एक अच्छे मित्र की तरह . आज पता नही कहाँ है वो। वो अपने ब्रेन के आपरेशन होने के बाद मेरे घर आयी थी उसके बाद ?
मेरी नज्में, अधूरी डायरी चली गयी। . दोस्त महेश के साथ।
ठक- ठक मेज पर जोर की आवाज के साथ होटल मालिक बाबू लाल की आवाज के साथ मेरी तंद्रा भंग हुई, ' ''बाबू जी सवेरे के चार बज गए हैं , घर नही जाना . दूध भी खत्म नही तो चाय ही पिला देता ''.
'' बाबू लाल , यहाँ तों जिंदगी ही खत्म हो गयी , अनु के साथ .''
यादे आज कचोट गयीं फिर से।
''बेदर्दी बालमा तुझे मेरा मन याद करता है''।
अनु ----
सदा करता रहेगा आँखें बंद होने तक।
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
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