हिमालय की तलहटी में
काक राज का बना धाम
कोयल संग विराज रहे
करते काकराज
विश्राम
तोता रमन सचिव उनका
निबटाता था सारे काम
काक राज तोता रमन सुनो ध्यान
से
पृथ्वी लोक में हो
आयें
खबर न मिली बहुत दिनों
से
नव समाचार ले आयें
तोता रमन देवराज इंद्र क्या हो रहा
इतने क्यों तुम हो
अधीर
भुजाएं तेरी फड़क रहीं
नयन बहा रहे अविरल नीर
भ्रष्टाचार धरा पर
फैला
अबला नारी के हरते चीर
धरती बड़ी पावन भारत की
प्रगटे राम और यदुवीर
बदला युग न बदला सत्य
सत्य पर सब कुर्बान
हुए
कलियुग में जनमें ईसा
सत्य के जग आधार हुए
सतयुग जन्मे सत्य वीर
हरिश्चन्द्र एक मिसाल
हुए
भ्रष्टाचार भारी धरा पर
देख हम शर्म से लाल
हुए
काक्राज कथा
सुनी बहुत काकराज
कथा हरिश्चन्द्र सुनाओ
हारा हो सत्य धरा पर
विवरण विस्तार से बताओ
तोता रमन हरे प्राण चढ़ा सत्य सलीब
ईसा मसीह नही था हारा
टपका सत्य बन लहू धारा
प्रभु ईसा ने तन मन
वारा
आज का मानव फितरती
जैसे जलेबी और इमरती
कथनी करनी बड़ा अंतर
बदले बात सदा निरंतर
सत्य आचरण करता नही
झूठ जगत करे व्यवहार
बेशर्मी पुलंदा ओढ़ कर
जाता जन –जन के द्वार
युग सतयुग त्रेता द्वापर
छल प्रपंच हुए सरासर
देव मुनि बचा ना
कोई
भागीदारी सबकी बराबर
अयोध्या पति श्री हरिश्चन्द्र राजा
सत्य आचरण सहित रहें
समाजा
कुटिल नीति मुनि
परीक्षा लीन्ही
राज पाट लीन्ह पैदल
कीन्ही
कथा उनकी अब मैं
तुम्हें सुनाऊ
निष्ठा सत्य देख बलि
बलि जाऊं
सत्यवादी
&&&&&&&&&&&&&
(परदा उठता है)
युग –सतयुग
स्थान -देवलोक
देवर्षि इन्द्र का
दरबार सजा है। सारे देवी देवता, ऋषि मुनि चर्चा परिचर्चा में
व्यस्त हैं।
नेपथ्य में
अपसराओं के मधुर गान से परिसर गुंजायमान है।
देवर्षि इन्द्र
पूर्ण से मगन हो झूम रहे है।
बली बली जाऊं राजा
बली बली जाऊं
गीत मिलन के सखी
संग गाऊं
बली बली जाऊं राजा
बली बली जाऊं
तुम जस जग में नही
कोई वीरा
चौड़ी छाती गल हार हीरा
कौन जतन से
तुमको रिझाऊं
बली बली जाऊं राजा
बली बली जाऊं
सोन मुकुट भाल
विराजे
हाथ वज्र धनु
काँधे साजे
महिमा तेरी हर पल
गाऊं
बली बली जाऊं राजा
बली बली जाऊं
युद्ध में तेरा
कोई नही सानी
शक्ति मगर नही
अभिमानी
कब तक कैसे याद
दिलाऊ
बली बली जाऊं राजा
बली बली जाऊं
मुनि वशिष्ठ व मुनि विश्वामित्र गहन मंत्रणा में व्यस्त हैं और उनके माथे पर
चिन्ता की लकीर स्पष्ट देखी जा सकती है।
मुनि वशिष्ठ -देवर्षि इन्द्र तुम हो कर मगन यहॉं झूल रहे,
पृथ्वी लोक में अवध पुरी को क्यों भूल
रहे।
जानते तुम सतयुग है अभी महा काल का
नादान पता नहीं अवधपुरी की चाल का।
हरिश्चन्द्र का हैं राज
वहॉं
सत्यवादी है उसका जहॉं।
दानवीर है राजा बड़ा
रहता अपनी बात पर अड़ा।
मदहोश नही न
ही रहता नशे में चूर
शतक
अश्वमेघ यज्ञ एक यज्ञ से दूर।
शीध्र ही वह अब पूर्ण हो जायेगा,
देवलोक का सिंहासन तेरा छिन जायेगा।
मुनि विश्वामित्र -
मुनिवर यह क्या तथ्य जिसे तुम कहते हो ,
अवधपुरी में सत्यवादी को क्यों
सहते हो।
पृथ्वीलोक से नृप आकर राज करेगा,
देवन्द्र मेरा
नहीं चाकर उसका बनेगा।
जाता हूँ मैं अब पृथ्वी लोक
लेता परीक्षा उसकी ताल ठोंक ।
कसबल उसका सब निकल
जायेगा
देवलोक कभी न उसे भायेगा।
मुनि वशिष्ठ मुनिवर
बात ये कदापि उचित नही
हरेक को छल बल से तंग करते हो
जाल में तेरे नही आने का वो
गाय हमारी हरी अब सत्य को हरते हो
सूर्यवंशी प्रतापी सत्यवादी राजा है वो
सत्य आचरण उसका अभिमान है
व्यर्थ ही तुम उससे टकराओगे
सच
कहो सत्य की ताकत का तुम्हें ज्ञान है
( (परदा गिरता है हरिश्चन्द्र
((परदा उठता है)
युग –सतयुग
स्थान -पृथ्वी लोक
नेपथ्य से –
तोता रमन चकित
बहुत
काक राज जी
हर्षाने हैं
अवध पुरी की देख
व्यवस्था
जाने गुण सब
आजमाने हैं
अवधपुरी के राज
महल में राजा हरिश्चन्द्र अपने सिंहासन पर बैठे हैं और अपने
मुख्य प्रधान से राज्य प्रशाशन की चर्चा
मे तल्लीन है।
राजा हरिश्चन्द्र- सुनिये
ध्यान लगा कर कान मेरे राज्य के मुख्य प्रधान
नागरिक मान रहे सारे विधान जानू सब मैं दयानिधान
बतायें क्या प्रजा सुखी खतरे का कोई अंदेशा तो नही
घर घर में खुषियाली धन धान्य पूर्ण
बदहाली तो नही
ऐसा कुछ कभी हो तत्काल हमें बतलाना
छोटी हो या बड़ी बात कभी न छिपाना।
मुख्य प्रधान- राजा हो आप सत्य के धरम मे धरमवीर
पीड़ित न मुझको मिला सच्चे तुम
दानवीर
कीर्ति पताका फहर रही सारे विश्व में आज
यज्ञ शतक पूर्ण होते ही, तीनो लोक में राज
राजा हरिश्चन्द्र- सत्य
कहते हो तुम मुख्य प्रधान
कृपा करें मुझ पर श्री भगवान
जब प्रजा सुखी तो राजा सुखी
जब प्रजा दुखी तो राजा दुखी
बीते कई दिन बीती कई रात
प्रजा ने न की कोई मुझसे बात
राजा हूँ मैं क्या उन्हें नही याद
कोई क्यों नही आया ले फरियाद
मुख्य प्रधान- राजन आप कतई न होवें उदास
सफल प्रशाशन आपका सच्चा प्रयास
आयी खबर द्वारे महामुनि जी है
पधारे
नाम विष्वामित्र जग में सबके बडे़
दुलारे
राजा हरिश्चन्द्र- राजोचित
सम्मान सहित उन्हें लायें आप प्रधान
अवधपुरी की परमपरा संसकारों को रख ध्यान
मुनि विश्वामित्र - सत्यवादी दानवीर धरमवीन राजा का मुझे भान
यज्ञ आयोजन हेतु मुझे चाहिए आपसे कुछ दान
राजा हरिश्चन्द्र- मुनिवर
मन में शंका क्यों षिष्य अपना मुझे जान
भूमि वस्त्र आभूषण जन सहित सब अपना
मान
मूंगा मोती माणिक पन्ना ले लो सारे तुम हार
दौलत जीवन काम न आये मुझको है
धिक्कार
मुनि विश्वामित्र - भूमि वस्त्र आभूषण जन सब मेरे लिये बेकार
यज्ञ खातिर केवल मुझको दो स्वर्ण
बारह भार
राजा हरिश्चन्द्र- इतनी
सी बात थी मुनिवर आप दौडे़ आये
देते संदेशा मुझको सब देता वहॉं भिजवाय
सुनो प्रधान सही माप से स्वर्ण
इनको देना
धन धान्य पूर्ण कर प्रेम से इनको
विदा देना
मुनि विश्वामित्र - राजन मैने देखा तेरा दिल तू है एक नगीना
राज तेरा स्वर्ग से सुन्दर कहीं
कोई कमी ना
रखिये सुरक्षित स्वर्ण भार समझो यह
है उधार
उचित समय पर आउॅंगा लेकर जाउॅगा भार
आने वाला समय तेरा कष्टकर ऐसा बना
विधान
आषिष तुमको दे रहा कृपा करें करूणा
निधान
( (परदा गिरता है )
(परदा उठता है)
मुख्य प्रधान- राजन महल के द्वार पर नवयुवती मॉगती
प्रवेश
गेरूआ वस्त्र आभूषण हीन नही उसका ये देश
जोगन रूप धारण किये लिये हाथ में
करताल है
दिव्यता कही झलकती नही नारी या
जंजाल है
महाराज आप सरल बहुत सरलता ही हार
है
दोस्त दुश्मन में भेद नही अजब ये व्यवहार है
राजा हरिश्चन्द्र राज
हमारा नही लिंग भेद नर नारी समान
लायें उनको प्रेम से सबको अपना ही जान
हमारे एक नारी पतिव्रता साध्वी
ब्रहम विज्ञानी
चिन्ता मुझे फिर क्यों हो, राजा हूँ ,नही अभिमानी
हे यौवना किस कारण बाल काल में जोग
लिया
सुन्दर जीवन वस्त्र आभूषण तज कैसा
रोग लिया
पावन गृहस्थ जीवन क्योंकर लगा
तुमको था भारी
हाथ में यह यन्त्र क्या भला क्या रक्षा करता तुम्हारी
जोगन - राजन यह यन्त्र खड़ताल है गायन में धूम
मचाता
मस्ती में हो जब गायन कीर्तन आनन्द
बहुत आता
राजन सुना तुम सत्य निष्ठ दानी वीर
स्वाभिमानी
जोगन हूँ नही रंग रूप फिर भी तेरी मैं दीवानी
गीत प्रणय का करूं समपर्ण नही कोई बेईमानी
राजा देवता संत कुटिल जन सबकी अलग
कहानी
पसन्द आये देना ध्यान कुछ और न
तुमसे मॉंगू
स्त्री हूँ मैं स्त्री बन तेरी स्त्री बनना ही तो मॉंगू सुन ओ मेरे राजा तू मेरे मन भाया
जोगन
हूँ मैं सुन्दर नही मेरी काया
करती
हूँ राजन तुमसे यही याचना
लीजिये
शरण दीजिए अपनी छाया
चम्पा
चमेली मैं गुलाब की कली
प्यासी
जनम की कली अधखिली
कर
ले विवाह सुन अब तू मुझसे
जागा
भाग्य मेरा जों तुझसे मिली
राजा हरिश्चन्द्र - जोगन तू भूल गयी स्त्री रह भूल न औकात
पत्नी मेरे एक है राखूँ नही दूसर सुन बात पत्नी मेरी पतिव्रता पढ़ी लिखी ज्ञानी है
पुत्र राहुल एक उसके खुद सुघड सयानी
है
जोगन- राजन तुम अब मुकर रहे कह कर अपनी बात
जोगन हूँ तो क्या हुआ स्त्री भी हूँ जन्मजात
गीत तुमको पसन्द आया तू मुझे मन भाया
ईनाम का वादा तेरा पत्नी बना हमसाया
राजा हरिश्चन्द्र - सुन
प्रधान यह स्त्री नही है बड़ी बहुमाया
मार धक्का बाहर भेजो मिटाओ इसकी
काया
मुनि विश्वामित्र -
राजन तुम क्यों कुपित हुए देख
सामने नारी
गीत भजन इसका सुना इनाम की अधिकारी
राजा तुम हो देश के सब के तुम
अधिकारी
मान सम्मान देओ सभी बाल पुरूष हो नारी
नारी अपमानित हो रही देख भरी सभा
के बीच
सत्यवादी राजा हो कैसे तुमसे भला तो नीच
मॉंगा जो इनाम इसने मना नही था तुमको करना
सत्यवादी तुम बहुत बडे़ सत्य से क्यों पीछे हटना
राजा हरिश्चन्द्र महामुनि जी अब ध्यान से सुनिये सारी मेरी बात
यह नारी नारी नही महा कुटिल नारी की घात
नारी मॉं समान माना नारी सदा पूज्य अधिकारी
नारी में वो नारी नही चतुर बड़ी नारी नही अनारी
धन धान्य से पूर्ण करूँ दे रहा था
मन चाहा पैसा
छलिया नारी मॉंग रही ईनाम में मिलता न हक ऐसा
सामर्थ्यवान भी चाहकर जोगन को नही
कभी दे सकता
पत्नी है एक घर में मेरे इसको पत्नी पद नही मैं दे सकता
मुनि विश्वामित्र - राजन तुम क्यों मुकर रहे दीजिये अब इनाम इसको भारी
तीनों लोक में तेरी कीर्ति फहरे जय जय कार हो तुम्हारी
राजा हरिश्चन्द्र - हीरा पन्ना मोती माणिक युक्त दी इसे एक माला
त्रिपुरारी
दोषी मैं भी कम नही नारी ये कुटिल
बड़ी मानो बात हमारी
सुन जोगन तू निकल यहॉं से या धक्का
देकर दूँ तुझे
निकाल
जोगन तेरी चक चक बहुत देर सुनी कर दूँगा
अब तुझे हलाल
जोगन- मुनिवर
रक्षा मेरी करो ये राजा नही है व्यभिचारी
मुझ जोगन से गीत सुना वचन ईनाम की मैं अधिकारी
मोती माला का मै क्या करूँ जोगन हॅू लाज बचाती
अर्धांगिनी रूप में स्वीकार करे इतनी इल्तिजा हमारी
मुनि विश्वामित्र - राजन बात चाहें कुछ भी रही हो दिया बचन पूरा करो
अवधपुरी नरेश तुम दानवीर सत्यवादी
बनकर धीर धरो
या कह दो अब तक जो तुम थे वह मात्र
एक छलावा था
ढपोर शंख से थे बज रहे सच का दूर
दूर तक न नाता था
राजा हरिश्चन्द्र - नही महाराज मैं वचन से कभी भी फिरा नही
राजा हूँ रंक नही दानी हॅूं मानवता से गिरा नही
मॉंगती जो ईनाम में वह ईनाम का रुप
नही
जोगन है जोगन रहे औकात में यह भूप नही
पत्नी मेरे एक है दूसरी मै रख सकता
नही
सत्यवादी धर्मनिष्ठ नीति से गिर सकता नही
मुनि विश्वामित्र - राजन अब तुम त्याग दो , सत्यवादी का स्वांग
झूठे
आप बहुत बड़े मुकर रहे देने को ईनाम
सत्यवादी अगर बहुत बड़े मॉगू तेरा राज
देने से पहले सोच लो बिगडे़गे सारे काज
पूछ लो अपनी रानी से मन में न हो संताप
अर्धागिनी वो तेरी जानती है तेरा
सब प्रताप
राजा हरिश्चन्द्र - दुनिया बड़ी अनमोल है सब ही राजा नाही
राजपाट मैं दे रहा सच से पीछे कभी
नाही
रानी से क्या मुझे पूछना ये मेरा
अर्जित धन
रखूँ या लुटाऊॅ इसे जानू मैं या मेरा मन
मुख्य प्रधान - महारानी
पेश है स्वीकारें सादर प्रणाम
माफ करिये अभी चलिये राजन के धाम
महाराज ने राजपाट मुनि को दिया दान
परिवार सहित करना होगा वन को
प्रस्थान
रानी तारामती- राजन मैं क्या सुन रही प्रधान जी के मुख
राजपाट मुनि को दिया त्यागे सारे
सुख
अपना नही मेरा नही सोचो एक है पूत
कंचन कोमल काया भली कैसे काते सूत
मुनि तुम तपस्वी कठोर हृदय कहॉं
पाय
कृपा सादर कीजिये बताइये अन्य उपाय
मुनि विश्वामित्र - रानी मैं सांसारिक नही न ही राज का लोभ
पति आपके सत्यव्रती आया हरने को
छोभ
राज तुम्हारा लौटा दूँगा पति से कहलवा
दो
सिंहासन सबसे पहले या सत्यवात
सुनवा दो
रानी तारामती- नही मुनिवर नही चाहिए घृणित दया तुम्हारी
तुमसे तो वेश्या भली कदाचार में सदाचारी
कटे शीष जाये राज राजा सत्य का
पुजारी
देव भले बदलें पाला बदले न नीति
हमारी
मुनि विश्वामित्र - देखो राजन पड़ी छाया स्त्री न मनुहारी
समय
कठिन भोगो दुख सारी करनी तुम्हारी
राजा हरिश्चन्द्र - चन्द्र टरे सूरज टरे चाहें टरे धरती सारी
नाम हरिश्चन्द्र है मेरा कभी न
मानी हारी
मुनि विश्वामित्र - ठीक राजन सुखी रहो झेलो विपदा सारी
राज पाट मेरा हुआ राजा से बनो भिखारी
सौपो मुझे सारे अंग वस्त्र मुद्रिका समेत
आभूषण
तारामती रोहित समेत गमन करो दूर हो प्रदूषण
राजा हरिश्चन्द्र - मुनिवर आज्ञा दीजिये सौपा राज और धन
बालक पर दया करो पहने दो उसे आभूषण
नादान बालक है वह समझ न उसको आता
दान
दिया राज फिर वस्त्र आभूषण से क्या नाता
मुनि विश्वामित्र - बालक होते सदा हठी शीघ्र समझ उन्हें न आता
मॉगे कब तक करेगे पूरी बन्द करो उसका खाता
बालक मॉगता चॉंद कटोरा हाथी उसमें कहॉं समाता
समझा सकती उसको बात सही केवल उसकी माता
राजा हरिश्चन्द्र - सही कहा मुनिवर आपने राज संग
सम्पदा तुम्हारी
आप राजा आपके आगे व्यर्थ आदमी बालक नारी
चलता हॅू सब सौंप दिया राजा से बना भिखारी
कृपा प्रभू की मुझ पर बहुत बड़ी हिम्मत कभी न
हारी
मुनि विश्वामित्र - ठहरो राजन अभी चले कहॉं कर्ज तुम पर भारी
बारह भार सोना दो मुझको यह आवश्यकता
हमारी
राजा हरिश्चन्द्र -
मुनिवर कर्ज तुम्हारा बाकी शीध्र चुकाने मैं आऊॅंगा
पाई
पाई जो शेष रही उसे देने में नही शरमाऊॅगा
मुनि विश्वामित्र -
सोने की आवश्यकता मुझे अभी शीघ्र
न जाने कब तुम चुकाने को आओगे
देने का अब पास तुम्हारे साधन क्या
हर बार यूँ ही तुम हमे झुठलाओगे
पूरा नही कर सकते अगर तुम अपना वचन
कह दो तुम यह सब कोरा झूठा सपना है
बात हमारे तुम्हारे मध्य नही तुमको
ठगना है
लौटा दॅूं लिया सारा राज पाट मौन
नही अब रहना है
असत्य था कुछ भी तथ्य नही बस इतना
ही कहना है
राजा हरिश्चन्द्र -
अवधपुरी का महाराजा हॅू मैं हरिश्चन्द्र
नरेश हॅू
दिया बचन मुकरता नही जंगल मे करता
प्रवेश हॅू
माह एक अब दीजिये मुझको सोना मै
पहॅुचा दूँगा
वचन पक्का जानो मेरा कहने को न
अवसर लूँगा
मुनि विश्वामित्र -
नक्षत्र मेरे ओ प्यारे चेले इनके संग तुम जाओ अब
एक माह में देख भाल से बारह भार
सोना लाओ सब
ताके रहना हर पल इनको करने नही
देना विश्राम
बात बात में ताने देना कर देना
जीना इनका हराम
करें ये दिन भर मेहनत चुकाने को ऋण
भार हमारा
पायें कष्ट निष दिन ये जानो अब यह
कार्य तुम्हारा
हार थक कर मजबूर हों ये ले झूठ का
सहारा
अगर तुम सफल हुए माना पक्का शिष्य हमारा
राजा हरिश्चन्द्र -
महामुनि आशीष दें चलूँ मैं आपका चुकाने
भार
माह
एक काफी है बहुत यह अवधि हमें स्वीकार
रानी तारामती आइये चलें करें अन्य
नगर प्रस्थान
राज
पाट की चिन्ता नही जब संग पत्नी और संतान
((राजन तारामती रोहित मुख्य प्रधान नक्षत्र मुनि के साथ प्रस्थान करते है।)
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
मुनि विश्वामित्र -
राजा तुम कठोर भले पर रानी है सुकुमार
युवराज कैसे सहे आगे कष्टों की
भरमार
नाहक कष्ट उठा रहे मान लो अपनी हार
आना पड़ेगा लौट कर आखिर मय परिवार
नही मानते कहना तुम जिद्दी बडे
अपार
कह दो यह झूठ कहा वापस लो संसार
((मुनि नक्षत्र, हरिष्चन्द्र तारा एवं रोहित
साथ-साथ अन्य नगर को प्रस्थान करते है)
हरिश्चन्द्र - पथ कंटक युक्त है राह बड़ी दुष्वार
धना जंगल दूर तक थका राजकुमार
रानी पीछे पीछे चल रही मुनि भरता फुंकार
हरिश्चन्द्र मैं तो थक गया बनो मेरा सेवादार
सुख सुविधा में थे पले आज देखो कहॉ
चले
युंक्ति कोई अब शेष नही विपदा बता
कैसे टले
रोहिताश्व
तुम्हें अंक लॅू और न कोई उपाय
पास मेंरे धन नही न ही निकट कोई
सराय
भूख प्यास से सभी व्यथित नगरी बहुत
दूर
आओ कुछ क्षण विश्राम कर थकान करें
दूर
चिंतित न हो पिताश्री माता तुम नही
रोओ
पुत्र मैं सत्यवादी का प्रतिष्ठा
मेरी न खोओ
काटे जब अच्छे दिन यह दिन भी कट
जायेंगे
अवधपुरी के सत्यवादी नाम अमर कर
जायेंगें
मुनि - हरिश्चन्द्र मैं देख रहा चिन्ता न तुम्हें हमारी है
परिवार सहित विचर रहे मिटी क्षुधा
तुम्हारी है
यह मत भूलो ऋणी हो तुम करिये मेरी
सेवा
विश्राम
यहीं पर करता हॅू लाओ जल फल और मेवा
हरिश्चन्द्र - घना जंगल चारों तरफ केवल छायी हरियाली है
फल फूंल न ही कन्द मूल काली घटा
मतवाली है
रहना मुनासिब न रात यहॉं विश्राम
कहीं और करते हैं
आगे आने वाली नगरी में कुछ देर हम प्रवास करते हैं
मुनि- नही हरिश्चन्द्र गलत बात विश्राम यही पर अब होगा
स्नान की करो व्यवस्था ऐसा समय नही
कभी भोगा
बनते बड़े सत्यवादी अपना प्रभाव
शीघ्र दिखलाओ
करो व्यवस्था भोजन की चाहें खुद
भूखे सो जाओ
हरिश्चन्द्र - रानी तुम ठहरो यहीं पास नदी जल भर लाता हॅू
खाने का कोई प्रबन्ध नही यह तुमको
बतलाता हॅू
तारामती- स्वामी आप यहीं रूकें देखॅू है क्या कोई उपाय
लाठी भी टूटे नही और सॉंप तुरन्त
मर जाय
मुनि- पति पत्नी तुम खुसुर पुसुर कर रहे क्या बात
सारा प्रबन्ध अति
शीध्र करो बीती जाती रात
जानता था ऋण
चुकाने की नीयत नही तुम्हारी
झूठ बोल सत्यवादी
बने बोलो है सच्ची बात हमारी
बात हमारी तुम
मानो मिट जायेगा सारा झगड़ा
भार स्वर्ण दे न
सकता मुनिवर खतम करो रगड़ा
मैं भी मुक्ति पा
जाऊॅ और वापस मिले तुम्हे राजपाट
परिवार सहित राज
करो भोगो पहले जैसा ठाट बाट
हरिश्चन्द्र - मुनिवर ऐसे वचन कह तुम सच पर मुझ को न तोलो
अपने कहे से नही मुकरना मुझे चाहें
कुछ भी तुम बोलो
ऋण चुकता न करना होता तो राज पाट
मैं क्यों देता
मुनि हो छोड़ दिया कोई और कहे उसके
प्राण हर लेता
मुनि- तुम राजा रहो या रंक बनां इससे मेरा कोई नही
नाता
मुनिवर का आदेश था जिसके पालन हेतु
संग मैं आता
दशा देख परिवार की दे रहा था आपको नेक सलाह
वचन अपना तोड़ कर मुनि विश्वामित्र की
लेते पनाह
नही मानते बात तो चलिए अतिशीघ्र करिये कुछ कमाल
देखें कैसे तुम चुकाओगे ऋण कहॉ है
आपकी टकसाल
तारामती- स्वामी मुनिवर के वचन कुछ भी गलत नही करिये विश्वास
पास अपने एक भी धेला नही और न अन्य हुनर ही पास
परदेस है कोई जानता नही रिश्ते नातों की क्या आस
वक्त जब आता बुरा सब एक जैस कोई न
होता खास
हरिश्चन्द्र - रानी कहती तो तुम ठीक हो बुरा समय है आज
बने के संगी सभी बिगड़े पर दूर होता
वही समाज
तारामती- स्वामी काशी नगरी प्राचीन है हरएक करता कमाई
साधन जिसके पास न हो उन्होंने
गुलामी अपनाई
बेहतर है कि हम अपने दारूण
कष्ट को छिपायें
बेच दें अपने आप को गुलाम किसी के
हो जायें
हरिश्चन्द्र - रानी तेरी सत्य बात कौन किसी को ढोता है
आता जब बुरा वक्त हरेक अपनी अपनी
रोता है
कहावत है कि अपनी करनी काटे जो
बोता है
लाख जतन करें हम मिले जो भाग्य में होता है
किसको बेचूँ ये मैं सोचॅू कर्जा
बारह भार
है
दाम पूरे फिर भी न मिले समय की
बलिहार है
मुनि- हरिश्चन्द्र देखो
समय जल्दी जल्दी बीत रहा
चुकता न कर पाओगे ऋण ऐसा मुझको दीख
रहा
वक्त अभी भी देता हॅू दिये वचन से
कर दो इन्कार
विश्वामित्र की शरण चलो करो राज पाट स्वीकार
हरिश्चन्द्र - मुनि तुम छली कुटिल कपटी बडें सफल न हो चाल
तुम्हार
हॉडी मैं तपी हुई दोबारा चाक न चढ़ा
सके कोई भी कुम्हार
हटो दूर मत आओ पास मुनि नही तुम हो
खार
माह भीतर ऋण चुका करूँ सौंपूँ
स्वर्ण बारह भार
तारामती- स्वामी मुझे व कुमार को बेचिये संग एक ही हार
एक दूजे को देख कर देखेंगे कैसा है
ये संसार
पालनकर्ता राज का सबसे समान करता
था व्यवहार
खेल नसीब का तो देखिये परिवार सहित
बिकने का तैयार
हरिश्चन्द्र - बारह भार
स्वर्ण उऋण का मुझ पर बड़ा है भार
काशी वासी खरीद लो मैं खड़ा बीच
बाजार
क्रेता- स्त्री बालक सहित बेचोगे मिले स्वर्ण
दो भार
शीघ्र बोलो नही तो आगे बढूँ करने को व्यापार
हरिश्चन्द्र - पत्नी मेरी सुशील है सारे गुणों की खान
साथ सुयोग्य बेटा भी गुण क्या करूँ
बखान
मूल्य आपने कम लगाया मैं भी हूँ मजबूर
दोनो के आठ भार लगायें कष्ट हो कुछ दूर
क्रेता- मूल्य
मैने कम न लगाया दशा पर तेरी तरस खाया
रखना होगा इनको सम्भाल के पड़े न कोई काली साया
हरिश्चन्द्र - रानी तारामती सुनिये पुत्र युवक कुमार
दोषी मैं तेरा हॅू हारा अपने हाथों
संसार
क्षमा लायक मैं नही फिर भी करूँ पुकार
अपराधी मैं
तेरा मन मत रखियो रार
तारामती- नही स्वामी मे संगिनी मजबूरन छोड़ा साथ
अर्धांगिनी तन मन तेरी न छोडॅू
तेरा हाथ
स्वामी अब आज्ञा मुझे चलॅू मनुज के
साथ
संयोग देखिये
कब बने पकडूँ फिर तेरा हाथ
हरिश्चन्द्र - रानी बिदा अब होते हैं देता आशीष अनाथ
जीवन रहा जरूर मिलेंगे कृपा करेंगे
नाथ
मुनि- हरिश्चन्द्र बहुत खेल चुके नौटंकी स्वांग
मानते बात मेरी मुनिवर पूरी करते
हर मॉंग
बारह भार सोना देना था दो हुआ तैयार
लाओ सौंपो इसे मुझे दस और की दरकार
हरिश्चन्द्र - ठीक कहते मुनिवर आप बारह में बाकी दस
भार
दो भार स्वीकारिये खुद बिकने खडा बीच बाजार
दस भार देता अभी समय का करें इन्तजार
विदा आपको मैं करूँ चुकता करूँ सारा उधार
काशी
वासी सुन लीजियो मेरी करूण पुकार
हृष्ट पुष्ट मर्द खड़ा बिकने कीमत
स्वर्ण दस भार
बाल्मीकि- खरीदने को मैं तैयार मूल्य दॅूगा स्वर्ण दस भार
जाति का मैं बाल्मीकी काम कठिन
थोड़ा हमार
हरिश्चन्द्र - जाति पाति मानू नही कर्म प्रधान यह संसार
काम छोटा बड़ा नही सात्विक विचार
हमार
मुनिवर निकट अब आइये करता आपका
सत्कार
मुनि विश्वामित्र को प्रणाम सहित देना स्वर्ण बारह भार
आपसे भी याचना सादर अब स्वीकारें
सत्कार
दिल से क्षमा करें हुई गल्ती को
मुनिवर हमार
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
नेपथ्य से
राजा
पहुँचा डोम घर पंण्डित घर रानी
दस भर में
डोम बिका दो भार पूत रानी
पंडिताइन- रानी हो
या चेरी घर की सच बात बता ऐ तारा
सूरज सर पर चढ़ आया बाकी काम पड़ा सारा
समय से पहले उठ तारा समय बाद सोये
रानी नही दासी है अब पल पल काहे रोये
तारा मती - माते मुझ
को मत मारो मैं खुद विपदा की मारी हूँ
रानी हो आप इस घर की मैं दासी तुम्हारी हूँ
पंडिताइन- बक बक
ज्यादा तू करती है काम न करती धेला भर
पंडित मेरा ले आया कभी मैं न लाती
तुझको अपने घर
काहिल तू तेरा लड़का काहिल करते थे कैसे गुजारा
रोती रहती
दिन भर शोक पीड़ित मर गया पति तुम्हारा
खुद काम
करों और अपने लड़के से भी करवाओ
उठाओ यह
घड़ा सॅंभाल कर नदी से नीर भर लाओ
तारामती- दासी थी
सदा से मैं आज भी सेवा को हॅू तत्पर
मत कोसो
मेरे स्वामी को शतायु हों मेरे दिलवर
पुत्र मेरा
अभी छोटा है लाड़ प्यार से पाला है
यह भी सब
सीख लेगा संस्कारों में ढाला है
माते इतनी
क्रूर न बनो स्त्री प्रेम की मधुशाला
शान्ति से
भी काम बने क्यों धधकती बन ज्वाला
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
हरिश्चन्द्र - स्वामी
बतायें मेरा काम है क्या कहॉ मेरी शाला है
बैठा नही
चैन से कभी जब से होश संभाला है
डोम- फिक्र न
करो हरिश्चन्द्र तुमको मैं सब बतलाता हूँ
शयन
तुम्हें कहॉं करना भोजन कहॉं से पाना है
सामने बाजार
है वहीं से सारे किये हैं प्रबन्ध
भुगतान तुम्हें कुछ करना नही उनसे मेरा है अनुंबन्ध
हरिश्चन्द्र - इतना
तब सब ठीक है मैं तो आपका हूँ गुलाम
दाम आपने
चुकता किये अब बतायें मेरा काम
डोम- इतना आतुर
मत हो हरिश्चन्द्र खतम अब विश्राम
काम बताता
हॅू तुम्हें अब सुंन लो दिल को थाम
हरिश्चन्द्र - सेवक
हॅू सेवकाई करूँ सेवकाई है मेरा काम
आदेश आपका जो नीतिगत यही है मेरा धाम
काम कोई छोटा बड़ा नही हर काम है
अनमोल
निष्ठा पूर्वक अमल करूँ ये हरिश्चन्द्र के बोल
डोम- हरिश्चन्द्र
तुम जानते करम से मैं हॅू डोम
सुअर बाडे़
के प्रबन्धक हो कैसे करोगे होम
पास वरूणा
नदी बह रही जाकर लाओ जल
सुबह शाम
की व्यवस्था ध्यान रहे प्रतिपल
उठाओ घट अब
बात बहुत तुमने है कर ली
शीघ्र आओ
लौट कर वहॉं मत बजाना मुरली
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
पंडताइन- तू घर
बैठी क्या कर रही काहिल हराम खोर
सुनने को
राजी नही कहॅू तो मचावे है शोर
मटका उठा
जा जल्दी से नदी से पानी भर ला
भोजन करूँ इससे पहले हम सब को नहला
तारामती- ठीक
मालकिन अब जाती मैं शीध्र लौट कर आऊॅंगी
घर की साफ
सफाई संग सबको भोजन भी कराऊॅंगी
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
हरिश्चन्द्र - प्रभूजी
कहते सब करम दण्ड करने वाला ही तो पाता है
मैने तो सब
देख लिया गेहॅू संग घुन भी पिस जाता है
वक्त पर
भले आप साथ रहे आपके साथ न कोई आता है
नेकी कर
दरिया में डाल जग में स्वारथ का बस नाता है
उपवास हुआ
दस बारह दिन अन्न जल नही पाया है
घड़ा भी बड़ा
वजनी ज्यादा जल खूब इसमें समाया है
उठाऊॅ केसे
उठता नही आसपास नही कोई काया है
कठिन
परीक्षा क्यों लेता प्रभू जानू सब तेरी माया है
तारामती- ये क्या
स्वामी आप यहॉं कैसा बुरा हाल बना रखा है
मै दासी अब
पंडताइन की रोहित को वहीं रखा है
सूरज सर पर
चढ़ा हुआ आस पास नही साया है
गुलाब सा
आपका खिलता चेहरा आज क्यों मुरझाया है
हरिश्चन्द्र - रानी
अब मैं भी गुलाम तेरी तरह दस भार स्वर्ण
चुकाया है
अपना अपना
भाग्य है सुन डोम घर आश्रय मैने पाया है
मालिक मेरा
है बहुत सख्त जालिम काम बहुत लेता है
खाने पीने
की कमी नही पर चमड़ी हर लेता है
प्रभू कृपा
तुम आ गयी घड़ा उठाने में मदद करो
दुर्दशा पर तुम मेरी कदापि अपना चित न धरो
तारामती- माना मै
आपकी धर्म पत्नी पर अब अन्य की गुलाम हॅू
जाति के
पंडित वो और आप डोम के गुलाम हो
घट छूकर
मैं पंडित का धरम भ्रष्ट नही कर सकती
बात मेरी
जानो धर्मानुकूल मत कसिये मुझ पर फबती
हरिश्चन्द्र - तारा
तुम क्यों नही समझतीं यह घट कितना भारी है
दिन भर
भरना इसको ढोना क्या किस्मत हमारी है
थक कर चूर
हुआ शरीर घट मुझसे नही उठता है
अकड़ गया
सारा शरीर ऊपर नीचे नही झुकता है
दिवस कई
बीत गये अन्न जल मैने नही पाया है
आखिर मानव
ही हूँ कृश हो गयी सारी काया है
तारामती- स्वामी आप
कुछ भी कहें मैं पथ विचलित नही हो सकती
अर्धांगिनी
मै सत्यवादी की असत्यवादी नही बन सकती
स्वयं
उठायें घट अपना मै करती अब प्रस्थान हॅू
बाट जोहती
वहॉ माता इस भय से मैं हल्कान हॅू
हरिश्चन्द्र- रानी
तुम न थीं इतनी कठोर दिल खुश नारी थीं
चाहें जो
भी रही हो परिस्थिति हार हाल हमारी थीं
विलम्ब अब
बहुत हुआ जाना है मालिक मेरा है क्रूर
भाग्य देखिये हम सब का आज कितने हैं
मजबूर
(युक्ति सारी विफल हुई घट न पाया संभाल धरा गिर टुकड़ा हुआ हरिश्चन्द्र
का बुरा हाल)
डोम- डोम ने
देखा घट टूटा क्रोध से वह पीला लाल हुआ
तमाचे पर
तमाचे बिना गिने जडे़ हरिश्चन्द्र का बुरा हाल हुआ
कीमत घट की
देगा कौन ऋण चुकता कैसे करायेगा
मारूंगा मै इतना अब तुमको छठी का दूध याद आ जायेगा
हरिश्चन्द्र- जब से
आया द्वार तेरे खटा रहा शरीर बिना लिये आहार
घट तेरा जो टूट गया कर रहा तू मुझ पर प्रहार पर प्रहार
इन्सान हॅू कोई और नही पशु जैसा कयों कर रहा व्यवहार
गुलाम हॅू मैं तेरा चुकता कर दूंगा धीरे धीरे सारा उधार
आपसे मुझे फिर कहना है काम मुझे कोई दीजिये और
अन्यथा अब बर्दाश्त नही आपके सामने दूँगा जीवन छोड़
डोम- हरिश्चन्द्र
अनजाने में मुझसे घोर अपराध हुआ
बात सही
पहले बतलाते गुलाम पशु नही बोध हुआ
आज से यह
काम बन्द शमशान घाट पर रहना तुम
आयेंगें जो
वहॉं शव कर टका सवा वसूलना तुम
काटा है सर्प ने रोहित करे विलाप
माता आ बचा मुझे करके शिव जाप
गया था चुनने
पुष्प को उपवन में रोहित कुमार
नाग ने डस लिया
पल में हर लिये उसके प्राण
आने में देख
विलम्ब को तारा हुई अति परेशान
उपवन में जा पहुंची
रोहित पड़ा था निष्प्राण
पछाड मार के गिर पडी मच गया हा हा कार
गोद ले कर चल पड़ी
करने अंतिम संस्कार
पास टका एक भी नही जाने नही वो दस्तूर
रानी थी रहती
महलों में उसका क्या कसूर
घनी अँधेरी रात थी
हाथ को न सूझ रहा हाथ
सीने से चिपकाय थी
तारा पुत्र का न छूटे साथ
राज पाट सुख चैन
पति सब कभी का छूट गया
जीवन का था आखिरी
सहारा आज वो रूठ गया
चीर कर अँधेरा
रानी जलती चिता की ओर बढ़ी
प्रहरी
कौन है कौन है की आवाज सुन हो गयी
वो खड़ी
कौन हो किस लिए विचर रहे इस शमशान
घाट में
राहगीर हो बताओ जान लो मुर्दा
फुंकता नही रात में
चौकीदार हूँ मै शमशान का पहरा देता
हूँ जाग कर
मुर्दा हो किसी का भी जलने न दूँ
लिए मैं बिना कर
तारा मैं अभागिन वो नारी हूँ लुट गया है जिसका संसार
पास मेरे कुछ शेष नही कैसे निभाऊं मैं
यहाँ व्यवहार
प्रहरी पौ फटनी शुरु हुई छंटने लगा घना अन्धकार
कर चुकता सवा टका करो फिर अंतिम
संस्कार
तारा सजल
नयन अवरुद्ध कंठ तारा कीन्ह मनुहार
दया करो हे श्रेष्ठ जन जानहु तुम
पीड़ा हमार
नही धन अब पास मेरे तन और मन के
सिवा
दासी हूँ जानत हैं नगर के स्वामी नाथ शिवा
विपदा सारी सो जानत हैं सब शिव
शंकर जी हरी
प्रहरी मजबूरी मेरी
है देखो मैं हूँ इस शमशान का प्रहरी
तारा रानी थी कभी पर अब कुछ न मेरे कुछ भी हाथ है
शिशु रोहित अयोध्या का कुंवर
ग्रसित सर्प घात है
प्रहरी हाल जान कर नारी का प्रहरी हुआ अत्यंत विकल
देख सामने तारा को गिर पड़ा था अब
तक अटल
तारा नाथ आप इस शमशान में किस जीवन के हैं भोग
शरीर आपका जर्जर हुआ बताएं लगे हैं
कितने रोग
प्रहरी कर कफन लिए बगैर जलने नही दिया जाय शव
आज्ञा मालिक की मेरे भले ही खड़ा हो
सामने रब
मालिक नही दास हूँ धर्म है आज्ञा
पालन करता हूँ
हारा नही जीवन में कभी सत्य आचरण
करता हूँ
पुत्र हो सामने या हो पत्नी
मर्यादा न दूँ में बिकनी
आफत जितनी आयें सत्य के आगे कभी न
टिकनी
तारा मानते नही प्रहरी सुनो फिर तुम ये अंतिम बात
है
देने को सवा टका कर नही शरीर पर
आंचल मात्र है
देती हूँ तुम्हें चीर चीर कर दिल जज्बात साथ में
करने दो अंत्येष्टि पुत्र की अब शेष न कुछ हाथ में
फाड़ा चीर तारा ने दिया जब कफन प्रहरी के हाथ में
फट गया कलेजा माँ बाप का थर्राया त्रिलोक साथ में
खेल मुनियों का देख कर क्रोध जागा त्रिलोकी नाथ में
छोड़ आसन चले क्षीरसागर से श्री विष्णु सत्य नारायण
थम गयी गति प्रक्रति की सूर्य थमे उत्तरायण दक्षिणायण
देख दशा राजा हरिश्चंद की भगवान हुए अति हैरान
विश्व मित्र जो हो मुनि कैसे बन बैठा इतना नादान
देख सामने नारायण को खड़ा राजा दोनों जोड़े हाथ
परीक्षा में असफल हुआ तो ले लीजिये अब मेरा माथ
विश्वामित्र राजन में प्रसन्न हूँ तुम सत्यवादी
अयोध्यापति जाबांज
धन संपदा परिवार सहित वापस
निष्कंटक करहु राज
हरिश्चन्द्र - अब प्र्रभु प्रसन्न क्यों हुए पहले थे
क्यों नाराज
सत्यवादी हरिश्चन्द्र जब कर रहा था सगरे काज
कौन था इसके पीछे किसको मिलना था लाभ
आप भी कान के कच्चे बोलिये क्यों बने
महाराज
भरोसा नही जब खुद
पर था क्यों नाप रहे थे मुझे बे माप
विश्वामित्र - राजन
सुनो देवेन्द्र ईर्ष्या भरा नित
करता था संताप
ऋषि मुनि
बुलाकर रोज कहता करने को पाप
हरिश्चन्द्र निवेदन करता हूँ मुनिवर ऐसी परीक्षा किसी
की अब न लेना
सत्य राह चलने वालो को अपना आशीष
आप सदा ही देना
विश्वामित्र रोहित पुत्र जीवित है ये माया की बलिहारी
सत्य तुम्हारी शरण रहेगा ये आशीष
हमारी
राज पाट धन सम्पदा सब करता अब वापस
युगों युगों तक फ्हरेगी सत्य पताका तुम्हारी
सत्य नारायण कथा धरा पर जब तलक गयी
जायेगी
अवध पुरी नरेश हरिश्चन्द्र की कीर्ती पताका फहराएगी
सत्यनारायण प्रसन्न हुए करुना निधि बोले दयानिधान
वर माँगो दूँ अभी सूर्य वंश की हो शान
हरिश्चन्द्र पुत्र बने
अयोध्यापति हम जन को दें विश्राम
एवमस्तु दोनों चले विष्णु लोक उड़ विमान
सत्यमेव जयते
तोता रमन तोता रमन बोलर सुनिए काक महाराज
जीवन सफल हो गया कथा सुनकर आज
आईये वापस घर चलें भजते प्रभू श्री राम
अवधपुरी सी शासन व्यवस्था सच्चा सुराज
राजा हरिष्चन्द्र तारामती
-------------
(परदा उठता है)
युग -सत्युग
स्थान -देवलोक
देवर्षि इन्द्र का दरबार सजा है। सारे देवी देवता, ऋषि मुनि चर्चा परिचर्चा में व्यस्त हैं।
नेपथ्य में अपसराओं के मधुर गान से परिसर गंुजायमान है।
देवर्षि इन्द्र पूर्ण से मगन हो झूम रहे है।
मुनि वषिष्ठ व मुनि विष्वामित्र गहन मंत्रणा में व्यस्त हैं और उनके माथे पर चिन्ता की लकीर स्पष्ट देखी जा सकती है।
मुनि वषिष्ठ -देवर्षि इन्द्र तुम हो कर मगन यहाॅं झूल रहे,
पृथ्वी लोक में अवध पुरी को क्यों भूल रहे।
जानते तुम सत्युग है अभी महा काल का ,
नादान पता नहीें अवधपुरी की चाल का।
हरिष्चन्द्र का हैं राज वहाॅं, सत्यवादी है उसका जहाॅं।
दानवीर है राजा बड़ा, रहता अपनी बात पर अड़ा।
मदहोष नही ए न ही रहता नषे में चूर ,
शतक अष्वमेघ यज्ञए एक यज्ञ से दूर।
शीध्र ही वह अब पूर्ण हो जायेगा,
देवलोक का सिंहासन तेरा छिन जायेगा।
मुनि विष्वामित्र- मुनिवर यह क्या तथ्य जिसे तुम कहते हो ,
अवधपुरी में सत्यवादी को क्यों सहते हो।
पृथ्वीलोक से नृप आकर राज करेगा,
देवन्द्र मेरा नहीं चाकर उसका बनेगा।
जाता हूॅ मैं अब पृथ्वी लोक, लेता परीक्षा उसकी ताल ठोंक ।
कसबल उसका सब निकल जायेगा, देवलोक कभी न उसे भायेगा।
( परदा गिरता है )
(परदा उठता है)
युग -सत्युग
स्थान -पृथ्वी लोक
अवधपुरी के राज महल में राजा हरिष्चन्द्र अपने सिंहासन पर बैठे हैं और अपनेे मुख्य प्रधान से राज्य प्रषासन की चर्चा मे तल्लीन है।
राजा हरिष्चन्द्र- सुनिये ध्यान लगा कर कान , मेरे राज्य के मुख्य प्रधान
नागरिक मान रहे सारे विधान, जानू सब मैं दयानिधान
बतायें क्या प्रजा सुखी, खतरे का कोई अंदेषा तो नही?
घर घर में खुषियाली धन धान्य पूर्ण बदहाली तो नही?
एंेसा कुछ कभी हो तत्काल हमें बतलाना
छोटी हो या बड़ी बात कभी न छिपाना।
मुख्य प्रधान- राजा हो आप सत्य के , धरम मे धरमवीर
पीड़ित न मुझको मिला, सच्चे तुम दानवीर
कीर्ति पताका फहर रही, सारे विष्व में आज
यज्ञ शतक पूर्ण होते ही, तीनो लोक में राज
राजा हरिष्चन्द्र- सत्य कहते हो तुम मुख्य प्रधान
कृपा करें मुझ पर श्री भगवान
जब प्रजा सुखी तो राजा सुखी
जब प्रजा दुखी तो राजा दुखी
बीते कई दिन बीती कई रात
प्रजा ने न की कोई मुझसे बात
राजा हूॅ मैं क्या उन्हें नही याद
कोई क्यों नही आया ले फरियाद
मुख्य प्रधान- राजन आप कतई न होवंे उदास
सफल प्रषासन आपका सच्चा प्रयास
आयी खबर द्वारे महामुनि जी है पधारे
नाम विष्वामित्र जग में सबके बडे़ दुलारे
राजा हरिष्चन्द्र- राजोचित सम्मान सहित उन्हें लायें आप प्रधान
अवधपुरी की परमपरा, संसकारों को रख ध्यान
मुनि विष्वामित्र- सत्यवादी दानवीर धरमवीन राजा का मुझे भान
यज्ञ आयोजन हेतु मुझे चाहिए आपसे कुछ दान
राजा हरिष्चन्द्र- मुनिवर मन में शंका क्यों षिष्य अपना मुझे जान
भूमि वस्त्र आभूषण जन सहित सब अपना मान
मूॅगा मोती माणिक पन्ना ले लो सारे तुम हार
दौलत जीवन काम न आये मुझको है धिक्कार
मुनि विष्वामित्र- भूमि वस्त्र आभूषण जन सब मेेरे लिये बेकार
यज्ञ खातिर केवल मुझको दो स्वर्ण ढायी भार
राजा हरिष्चन्द्र- इतनी सी बात थी मुनिवर आप दौडे़ आये
देते संदेषा मुझको सब देता वहाॅं भिजवाय
सुनो प्रधान सही माप से स्वर्ण इनको देना
धन धान्य पूर्ण कर पे्रम से इनको विदा देना
मुनि विष्वामित्र- राजन मैने देखा तेरा दिल तू है एक नगीना
राज तेरा स्वर्ग से सुन्दर कहीं कोई कमी ना
रखिये सुरक्षित स्वर्ण भार समझो यह है उधार
उचित समय पर आउॅंगा लेकर जाउॅगा भार
आने वाला समय तेरा कष्टकर ऐसा बना विधान
आषिष तुमको दे रहा कृपा करें करूणा निधान
( परदा गिरता है )
(परदा उठता है)
मुख्य प्रधान- राजन महल के द्वार पर नवयुवती माॅगती प्रवेष
गेरूआ वस्त्र आभूषण हीन, नही उसका ये देष
जोगन रूप धारण किये लिये हाथ में करताल है
दिव्यता कही झलकती नही नारी या जंजाल है
महाराज आप सरल ,बहुत सरलता ही हार है
दोस्त दुष्मन में भेद नही अजब ये व्यवहार है
राजा हरिष्चन्द्र- राज हमारा, नही लिंग भेद, नर नारी समान
लायें उनको पे्रम से, सबको अपना ही जान
हमारे एक नारी पतिव्रता साध्वी ब्रहम विज्ञानी
चिन्ता मुझे फिर क्यों हो, राजा हूॅ ,नही अभिमानी
हे यौवना किस कारण बाल काल में जोग लिया
सुन्दर जीवन वस्त्र आभूषण तज कैसा रोग लिया
पावन गृहस्थ जीवन क्योंकर लगा तुमको था भारी
हाथ में यह यन्त्र क्या भला, क्या रक्षा करता तुम्हारी
जोगन - राजन यह यन्त्र खड़ताल है गायन में धूम मचाता
मस्ती में हो जब गायन कीर्तन आनन्द बहुत आता
राजन सुना तुम सत्य निष्ठ दानी वीर स्वाभिमानी
जोगन हूॅं, नही रंग रूप, फिर भी तेरी मैं दीवानी
गीत प्रणय का करूॅ समपर्ण, नही कोई बेईमानी
राजा देवता संत कुटिल जन सबकी अलग कहानी
पसन्द आये देना ध्यान कुछ और न तुमसे माॅंगू
स्त्री हूॅं मैं स्त्री बन तेरी स्त्री बनना ही तो माॅंगू
राजा हरिष्चन्द्र- जोगन तू भूल गयी, स्त्री रह, भूल न औकात
पत्नी मेरे एक है, राखूॅ नही दूसर, सुन बात
जोगन- राजन तुम अब मुकर रहे कह कर अपनी बात
जोगन हूॅ तो क्या हुआ स्त्री भी हॅॅू जन्मजात
गीत तुमको पसन्द आया तू मुझे मन भाया
ईनाम का वादा तेरा पत्नी बना हमसाया
राजा हरिष्चन्द्र- सुन प्रधान यह स्त्री नही है बड़ी बहुमाया
मार धक्का बाहर भेजो मिटाओ इसकी काया
मुनि विष्वामित्र-
राजन तुम क्यों कुपित हुए ,देख सामने नारी
गीत भजन इसका सुना, इनाम की अधिकारी
राजा तुम हो देष के सब के तुम अधिकारी
मान सम्मान देओ सभी, बाल पुरूष हो नारी
नारी अपमानित हो रही देख भरी सभा के बीच
सत्यवादी राजा हो कैसे, तुमसे भला तो नीच
माॅंगा जो इनाम इसने, मना नही था तुमको करना
सत्यवादी तुम बहुत बडे़, सत्य से क्यों पीछे हटना
राजा हरिष्चन्द्र- महामुनि जी अब ध्यान से सुनिये सारी मेरी बात
यह नारी नारी नही महा कुटिल नारी की घात
नारी माॅं समान माना, नारी सदा पूज्य अधिकारी
नारी में वो नारी नही, चतुर बड़ी, नारी नही अनारी
धन धान्य से पूर्ण करूॅ ,दे रहा था मन चाहा पैसा
छलिया नारी माॅंग रही, ईनाम में मिलता न हक ऐसा
सामथ्र्यवान भी चाहकर जोगन को नही कभी दे सकता
पत्नी है एक घर में मेरे इसको पत्नी नही मैं कह सकता
मुनि विष्वामित्र- राजन तुम क्यों मुकर रहे दीजिये अब इनाम इसको भारी
तीनों लोक में तेरी कीर्ति फहरे , जय जय कार हो तुम्हारी
राजा हरिष्चन्द्र- हीरा पन्ना मोती माणिक युक्त दी इसे एक माला त्रिपुरारी
दोषी मैं भी कम नही नारी ये कुटिल बड़ी मानो बात हमारी
सुन जोगन तू निकल यहाॅं से या धक्का देकर दूॅ तुझे निकाल
जोगन तेरी चक चक बहुत देर सुनी कर दूॅंगा अब तुझे हलाल
जोगन- मुनिवर मेरी रक्षा करो , ये राजा नही है व्यभिचारी
मुझ जोगन से गीत सुना, वचन ईनाम की मैं अधिकारी
मोती माला का मै क्या करूॅं जोगन हॅू लाज बचाती
अर्धांगिनी रूप में स्वीकार करे, इतनी इल्तिजा हमारी
मुनि विष्वामित्र- राजन बात चाहें कुछ भी रही हो दिया बचन पूरा करो
अवधपुरी नरेष तुम दानवीर सत्यवादी बनकर धीर धरो
या कह दो अब तक जो तुम थे वह मात्र एक छलावा था
ढपोर शंख से थे बज रहे सच का दूर दूर तक न नाता था
राजा हरिष्चन्द्र- नही महाराज मैं वचन से कभी भी फिरा नही
राजा हूॅं रंक नही दानी हॅूं मानवता से गिरा नही
माॅंगती जो ईनाम में वह ईनाम का रुप नही
जोगन है जोगन रहे औकात में यह भूप नही
पत्नी मेरे एक है दूसरी मै रख सकता नही
सत्यवादी धर्मनिष्ठ नीति से गिर सकता नही
मुनि विष्वामित्र- राजन अब तुम त्याग दो , सत्यवादी का स्वांग
झूठे आप बहुत बड़े, मुकर रहे देने को ईनाम
सत्यवादी अगर बहुत बड़े, माॅगू तेरा राज
देने से पहले सोच लो, बिगडे़गे सारे काज
पूछ लो अपनी रानी से मन में न हो संताप
अर्धागिनी वो तेरी जानती है तेरा सब प्रताप
राजा हरिष्चन्द्र- दुनिया बड़ी अनमोल है सब ही राजा नाही
राजपाट मैं दे रहा सच से पीछे कभी नाही
रानी से क्या मुझे पूछना ये मेरा अर्जित धन
रखूॅं या लुटाऊॅ इसे जानू मैं या मेरा मन
मुख्य प्रधान - महारानी पेष है स्वीकारें सादर प्रणाम
माफ करिये अभी चलिये राजन के धाम
महाराज ने राजपाट मुनि को दिया दान
परिवार सहित करना होगा वन को प्रस्थान
रानी तारामती- राजन मैं क्या सुन रही प्रधान जी के मुख
राजपाट मुनि को दिया त्यागे सारे सुख
अपना नही मेरा नही सोचो एक है पूत
कंचन कोमल काया भली कैसे काते सूत
मुनि तुम तपस्वी कठोर हृदय कहाॅं पाय
कृपा सादर कीजिये बताइये अन्य उपाय
मुनि विष्वामित्र- रानी मैं सांसारिक नही न ही राज का लोभ
पति आपके सत्यव्रती आया हरने को छोभ
राज तुम्हारा लौटा दूॅगा पति से कहलवा दो
सिंहासन सबसे पहले या सत्यवात सुनवा दो
रानी तारामती- नही मुनिवर नही चाहिए घृणित दया तुम्हारी
तुमसे तो वेष्या भली कदाचार में सदाचारी
कटे शीष जाये राज राजा सत्य का पुजारी
देव भले बदलें पाला बदले न नीति हमारी
मुनि विष्वामित्र- देखो राजन पड़ी छाया स्त्री न मनुहारी
समय कठिन भोगो दुख सारी करनी तुम्हारी
राजा हरिष्चन्द्र- चन्द्र टरे सूरज टरे चाहें टरे धरती सारी
नाम हरिष्चन्द्र है मेरा कभी न मानी हारी
मुनि विष्वामित्र- ठीक राजन सुखी रहो झेलो विपदा सारी
राज पाट मेंरा हुआ राजा से बनो भिखारी
सौपो मुझे सारे अंग वस्त्र मुद्रिका समेत आभूषण
तारामती रोहित समेत गमन करो दूर हो प्रदूषण
राजा हरिष्चन्द्र- मुनिवर आज्ञा दीजिये सौपा राज और धन
बालक पर दया करो पहने दो उसे आभूषण
नादान बालक है वह समझ न उसको आता
दान दिया राज फिर वस्त्र आभूषण से क्या नाता
मुनि विष्वामित्र- बालक होते सदा हठी शीघ्र समझ उन्हें न आता
माॅगे कब तक करेगे पूरी बन्द करो उसका खाता
बालक माॅगता चाॅंद कटोरा हाथी उसमें कहाॅं समाता
समझा सकती उसको बात सही केवल उसकी माता
राजा हरिष्चन्द्र- सही कहा मुनिवर आपने राज संग सम्पदा तुम्हारी
आप राजा आपके आगे व्यर्थ आदमी बालक नारी
चलता हॅू सब सौंप दिया राजा से बना भिखारी
कृपा प्रभू की मुझ पर बहुत बड़ी हिम्मत कभी न हारी
मुनि विष्वामित्र- ठहरो राजन अभी चले कहाॅं कर्ज तुम पर भारी
ढाई भार सोना दो मुझको यह आवष्यकता हमारी
राजा हरिष्चन्द्र- मुनिवर कर्ज तुम्हारा बाकी शीध्र चुकाने मैं आऊॅंगा
पाई पाई जो शेष रही उसे देने में नही शरमाऊॅगा
मुनि विष्वामित्र- सोने की आवष्यकता मुझे अभी शीघ्र
न जाने कब तुम चुकाने को आओगे
देने का अब पास तुम्हारे साधन क्या
हर बार यूॅ ही तुम हमे झुठलाओगे
पूरा नही कर सकते अगर तुम अपना वचन
कह दो तुम यह सब कोरा झूठा सपना है
बात हमारे तुम्हारे मध्य नही तुमको ठगना है
लौटा दॅंू लिया सारा राज पाट मौन नही अब रहना है
असत्य था कुछ भी तथ्य नही बस इतना ही कहना है
राजा हरिष्चन्द्र- अवधपुरी का महाराजा हॅू मैं हरिष्चन्द्र नरेष हॅू
दिया बचन मुकरता नही जंगल मे करता प्रवेष हॅू
माह एक अब दीजिये मुझको सोना मै पहॅुचा दूूॅगा
वचन पक्का जानो मेंरा कहने को न अवसर दूॅगा
मुनि विष्वामित्र- नक्षत्र मेरे ओ प्यारे चेले इनके संग तुम जाओ अब
एक माह में देख भाल से ढाई भार सोना लाओ सब
ताके रहना हर पल इनको करने नही देना विश्राम
बात बात में ताने देना कर देना जीना इनका हराम
करें ये दिन भर मेहनत चुकाने को ऋण भार हमारा
पायें कष्ट निष दिन ये जानो अब यह कार्य तुम्हारा
हार थक कर मजबूर हों ये ले झूठ का सहारा
अगर तुम सफल हुए माना पक्का षिष्य हमारा
राजा हरिष्चन्द्र- महामुनि आषीष दें चलूॅ मैं आपका चुकाने भार
माह एक काफी है बहुत यह अवधि हमें स्वीकार
रानी तारामती आइये चलें करें अन्य नगर प्रस्थान
राज पाट की चिन्ता नही जब संग पत्नी और संतान
(राजन , तारामती , रोहित, मुख्य प्रधान नक्षत्र मुनि के साथ प्रस्थान करते है।)
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
मुनि विष्वामित्र- राजा तुम कठोर भले पर रानी है सुकुमार
युवराज कैसे सहे आगे कष्टों की भरमार
नाहक कष्ट उठा रहे मान लो अपनी हार
आना पडे़गा लौट कर आखिर मय परिवार
नही मानते कहना तुम जिद्दी बडे अपार
कह दो यह झूठ कहा वापस लो संसार
(मुनि नक्षत्र, हरिष्चन्द्र, तारा एवं रोहित साथ-साथ अन्य नगर को प्रस्थान करते है)
हरिष्चन्द्र- पथ कंटक युक्त है, राह बड़ी दुष्वार
धना जंगल दूर तक, थका राजकुमार
रानी पीछे पीछे चल रही, मुनि भरता फुंकार
हरिष्चन्द्र मैं तो थक गया बनो मेरा सेवादार
सुख सुविधा में थे पले आज देखो कहाॅ चले
युंक्ति कोई अब शेष नही विपदा बता कैसे टले
रोहिताष्व तुम्हें अंक लॅू और न कोई उपाय
पास मेंरे धन नही न ही निकट कोई सराय
भूख प्यास से सभी व्यथित नगरी बहुत दूर
आओ कुछ क्षण विश्राम कर थकान करें दूर
चिंतित न हो पिताश्री माता तुम नही रोओ
पुत्र मैं सत्यवादी का प्रतिष्ठा मेरी न खोओ
काटे जब अच्छे दिन यह दिन भी कट जायेंगे
अवधपुरी के सत्यवादी नाम अमर कर जायेंगंे
मुनि - हरिष्चन्द्र मैं देख रहा चिन्ता न तुम्हें हमारी है
परिवार सहित विचर रहे मिटी क्षुधा तुम्हारी है
यह मत भूलो ऋणी हो तुम करिये मेरी सेवा
विश्राम यही ंपर करता हॅू लाओ जल फल और मेवा
हरिष्चन्द्र- घना जंगल चारों तरफ केवल छायी हरियाली है
फल फंूल न ही कन्द मूल काली घटा मतवाली है
रहना मुनासिब न रात यहाॅं विश्राम कहीं और करते हैं
आगे आने वाली नगरी में कुछ देर हम प्रवास करते हैं
मुनि- नही हरिषचन्द्र गलत बात विश्राम यही पर अब होगा
स्नान की करो व्यवस्था ऐसा समय नही कभी भोगा
बनते बड़े सत्यवादी अपना प्रभाव शीघ्र दिखलाओ
करो व्यवस्था भोजन की चाहें खुद भूखे सो जाओ
हरिष्चन्द्र- रानी तुम ठहरो यहीं पास नदी जल भर लाता हॅू
खाने का कोई प्रबन्ध नही यह तुमको बतलाता हॅू
तारामती- स्वामी आप यहीं रूकें देखॅू है क्या कोई उपाय
लाठी भी टूटे नही और साॅंप तुरन्त मर जाय
मुनि- पति पत्नी तुम खुसुर पुसुर कर रहे क्या बात
सारा प्रबन्ध अति शीध्र करो बीती जाती रात
जानता था ऋण चुकाने की नीयत नही तुम्हारी
झूठ बोल सत्यवादी बने बोलो है सच्ची बात हमारी
बात हमारी तुम मानो मिट जायेगा सारा झगड़ा
भार स्वर्ण दे न सकता मुनिवर खतम करो रगड़ा
मैं भी मुक्ति पा जाऊॅ और वापस मिले तुम्हे राजपाट
परिवार सहित राज करो भोगो पहले जैसा ठाट बाट
हरिष्चन्द्र- मुनिवर ऐसे वचन कह तुम सच पर मुझ को न तोलो
अपने कहे से नही मुकरना मुझे चाहें कुछ भी तुम बोलो
ऋण चुकता न करना होता तो राज पाट मैं क्यों देता
मुनि हो छोड़ दिया कोई और कहे उसके प्राण हर लेता
मुनि- तुम राजा रहो या रंक बनांे इससे मेरा कोई नही नाता
मुनिवर का आदेष था जिसके पालन हेतु संग मैं आता
दषा देख परिवार की दे रहा था आपको नेक सलाह
वचन अपना तोड़ कर मुनि विष्वामित्र की लेते पनाह
नही मानते बात तो चलिए अतिधीघ्र करिये कुछ कमाल
देखें कैसे तुम चुकाओगे ऋण कहाॅ है आपकी टकसाल
तारामती- स्वामी मुनिवर के वचन कुछ भी गलत नही करिये विष्वास
पास अपने एक भी धेला नही और न अन्य हुनर ही पास
परदेस है कोई जानता नही रिष्ते नातों की क्या आस
वक्त जब आता बुरा सब एक जैस कोई न होता खास
हरिष्चन्द्र- रानी कहती तो तुम ठीक हो बुरा समय है आज
बने के संगी सभी बिगड़े पर दूर होता वही समाज
तारामती- स्वामी काषी नगरी प्राचीन है हरएक करता कमाई
साधन जिसके पास न हो उन्होंने गुलामी अपनाई
बेहतर है कि हम अपने दारूण कष्ट को छिपायें
बेच दें अपने आप को गुलाम किसी के हो जायें
हरिष्चन्द्र- रानी तेरी सत्य बात कौन किसी को ढोता है
आता जब बुरा वक्त हरेक अपनी अपनी रोता है
कहावत है कि अपनी करनी काटे जो बोता है
लाख जतन करें हम मिले जो भाग्य में होता है
किसको बेचूॅ ये मैं सोचॅू कर्जा ढाई भार है
दाम पूरे फिर भी न मिले समय की बलिहार है
मुनि- हरिष्चन्द्र देखो समय जल्दी जल्दी बीत रहा
चुकता न कर पाओगे ऋण ऐसा मुझको दीख रहा
वक्त अभी भी देता हॅू दिये वचन से कर दो इन्कार
विष्वामित्र की शरण चलों करो राज पाट स्वीकार
हरिष्चन्द्र- मुनि तुम छली कुटिल कपटी बडें सफल न हो चाल तुम्हार
हाॅडी मैं तपी हुई दोबारा चाक न चढ़ा सके कोई भी कुम्हार
हटो दूर मत आओ पास मुनि नही तुम हो खार
माह भीतर ऋण चुका करूॅं सौंपूॅं स्वर्ण ढाई भार
तारामती- स्वामी मुझे व कुमार को बेचिये संग एक ही हार
एक दूजे को देख कर देखेंगे कैसा है ये संसार
पालनकर्ता राज का सबसे समान करता था व्यवहार
खेल नसीब का तो देखिये परिवार सहित बिकने का तैयार
हरिष्चन्द्र- ढाई भार स्वर्ण उऋण का मुझ पर बड़ा है भार
काषी वासी खरीद लो मैं खड़ा बीच बाजार
क्रेता- स्त्री बालक सहित बेचोगे मिले स्वर्ण एक भार
शीघ्र बोलो नही तो आगे बढूॅ करने को व्यापार
हरिष्चन्द्र- पत्नी मेरी सुंषील है सारे गुणों की खान
संाथ सुयोग्य बेटा भी गुण क्या करूॅ बखान
मूल्य आपने कम लगाया मैं भी हूॅ मजबूर
दोनो के डेेढ़ भार लगायें कष्ट हो कुछ दूर
क्रेता- मूल्य मैने कम न लगाया दषा पर तेरी तरस खाया
रखना होगा इनको सम्भाल के, पडे़ न कोई काली साया
हरिष्चन्द्र- रानी तारामती सुनिये पुत्र युवक कुमार
दोषी मैं तेरा हॅू हारा अपने हाथों संसार
क्षमा लायक मैं नही फिर भी करूॅं पुकार
अपराधी मैं तेरा मन मत रखियो रार
तारामती- नही स्वामी मे संगिनी मजबूरन छोड़ा साथ
अर्धांगिनी तन मन तेरी न छोडॅू तेरा हाथ
स्वामी अब आज्ञा मुझे चलॅू मनुज के साथ
संयोग देख्यिे कब बने पकडॅॅू फिर तेरा हाथ
हरिष्चन्द्र- रानी बिदा अब होते हैं देता आषीष अनाथ
जीवन रहा जरूर मिलेंगे कृपा करेंगे नाथ
मुनि- हरिष्चन्द्र बहुत खेल चुके नौटंकी स्वांग
मानते बात मेरी मुनिवर पूरी करते हर माॅंग
ढाई भार सोना देना था डेढ़ हुआ तैयार
लाओ सौंपो इसे मुझे एक और की दरकार
हरिष्चन्द्र- ठीक कहते मुनिवर आप ढाई में बाकी एक भार
डेढ़ भार स्वीकारियें खुद बिकने खडा बीच बाजार
एक भार देता अभी समय का करें इन्तजार
विदा आपको मैं करूॅ चुकता करूॅ सारा उधार
काषी वासी सुन लीजियो मेरी करूण पुकार
हृष्ट पुष्ट मर्द खड़ा बिकने कीमत स्वर्ण एक भार
बाल्मीकि- खरीदने को मैं तैयार मूल्य दॅूगा स्वर्ण एक भार
जाति का मैं बाल्मीकी काम कठिन थोड़ा हमार
हरिष्चन्द्र- जाति पाति मानू नही कर्म प्रधान यह संसार
काम छोटा बड़ा नही सात्विक विचार हमार
मुनिवर निकट अब आइये करता आपका सत्कार
मुनि विष्वामित्र को प्रणाम सहित देना स्वर्ण ढ़ाई भार
आपसे भी याचना सादर अब स्वीकारें सत्कार
दिल से क्षमा करें हुई गल्ती को मुनिवर हमार
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
पंडिताइन- रानी हो या चेरी घर की सच बात बता ऐ तारा
सूरज सर पर चढ़ आया बाकी काम पड़ा सारा
तारा मती - माते मुझ को मत मारो मैं खुद विपदा की मारी हूॅ
रानी हो आप इस घर की मेैं दासी तुम्हारी हॅॅॅू
पंडिताइन- बक बक ज्यादा तू करती है काम न करती धेला भर
पंडित मेरा ले आया कभी मैं न लाती तुझको अपने घर
काहिल तू तेरा लड़का काहिल करते थे कैसे गुजारा
रोती रहती दिन भर शोक पीड़ित मर गया पति तुम्हारा
खुद काम करों और अपने लड़के से भी करवाओ
उठाओं यह घड़ा सॅंभाल कर नदी से नीर भर लाओ
तारामती- दासी थी सदा से मैं आज भी सेवा को हॅू तत्पर
मत कोसो मेरे स्वामी को शतायु हों मेरे दिलवर
पुत्र मेरा अभी छोटा है लाड़ प्यार से पाला है
यह भी सब सीख लेगा संस्कारों में ढाला है
माते इतनी क्रूर न बनो स्त्री पे्रम की मधुशाला
शान्ति से भी काम बने क्यों धधकती बन ज्वाला
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
हरिष्चन्द्र- स्वामी बतायें मेरा काम है क्या कहाॅ मेरी शाला है
बैठा नही चैन से कभी जब से होष संभाला है
डोम- फिक्र न करो हरिष्चन्द्र तुमको मैं सब बतलाता हॅॅॅूॅ
शयन तुम्हें कहाॅं करना भोजन कहाॅं से पाना है
सामने बाजार है वहीं से सारे किये हैं प्रबन्ध
भुगतान तुम्हें कुछ करना नही उनसे मेरा है अनुंबन्ध
हरिष्चन्द्र- इतना तब सब ठीक है मैं तो आपका हूॅ गुलाम
दाम आपने चुकता किये अब बतायें मेरा काम
डोम- इतना आतुर मत हो हरिष्चन्द्र खतम अब विश्राम
काम बताता हॅू तुम्हें अब सुंन लो दिल को थाम
हरिष्चन्द्र- सेवक हॅू सेवकाई करूॅं सेवकाई है मेरा काम
आदेष आपका जो नीतिगत यही है मेरा धाम
काम कोई छोटा बड़ा नही हर काम है अनमोल
निष्ठा पूर्वक अमल करूॅं ये हरिष्चन्द्र के बोल
डोम- हरिष्चन्द्र तुम जानते करम से मैं हॅू डोम
सुअर बाडे़ के प्रबन्धक हो कैसे करोगे होम
पास वरूणा नदी बह रही जाकर लाओ जल
सुबह शाम की व्यवस्था ध्यान रहे प्रतिपल
उठाओ घट अब बात बहुत तुमने है कर ली
शीघ्र आओ लौट कर वहाॅं मत बजाना मुरली
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
पंडताइन- तू घर बैठी क्या कर रही काहिल हराम खोर
सुनने को राजी नही कहॅू तो मचावे है शोर
मटका उठा जा जल्दी से नदी से पानी भर ला
भोजन करूॅ इससे पहले हम सब को नहला
तारामती- ठीक मालकिन अब जाती मैं शीध्र लौट कर आऊॅंगी
घर की साफ सफाई संग सबको भोजन भी कराऊॅंगी
(परदा गिरता है)
(परदा उठता है)
हरिष्चन्द्र- प्रभूजी कहते सब करम दण्ड करने वाला ही तो पाता है
मैने तो सब देख लिया गेहॅू संग घुन भी पिस जाता है
वक्त पर भले आप साथ रहे आपके साथ न कोई आता है
नेकी कर दरिया में डाल जग में स्वारथ का बस नाता है
उपवास हुआ दस बारह दिन अन्न जल नही पाया है
घड़ा भी बड़ा वजनी ज्यादा जल खूब इसमें समाया है
उठाऊॅ केैसे उठता नही आसपास नही कोई काया है
कठिन परीक्षा क्यों लेता प्रभू जानू सब तेरी माया है
तारामती- ये क्या स्वामी आप यहाॅं कैसा बुरा हाल बना रखा है
मै दासी अब पंडताइन की रोहित को वहीं रखा है
सूरज सर पर चढ़ा हुआ आस पास नही साया है
गुलाब सा आपका खिलता चेहरा आज क्यों मुरझाया है
हरिष्चन्द्र- रानी अब मैं भी गुलाम तेरी तरह एक भार स्वर्ण चुकाया है
अपना अपना भाग्य है सुन डोम घर आश्रय मैने पाया है
मालिक मेरा है बहुत सख्त जालिम काम बहुत लेता है
खाने पीने की कमी नही पर चमड़ी हर लेता है
प्रभू कृपा तुम आ गयी घड़ा उठाने में मदद करो
दुर्दषा पर तुम मेंरी कदापि अपना चित न धरो
तारामती- माना मै आपकी धर्म पत्नी पर अब अन्य की गुलाम हॅू
जाति के पंडित वो और आप डोम के गुलाम हो
घट छूकर मैं पंडित का धरम भ्रष्ट नही कर सकती
बात मेरी जानो धर्मानुकूल मत कसिये मुझ पर फबती
हरिष्चन्द्र- तारा तुम क्यों नही समझतीं यह घट कितना भारी है
दिन भर भरना इसको ढोना क्या किस्मत हमारी है
थक कर चूर हुआ शरीर घट मुझसे नही उठता है
अकड़ गया सारा शरीर ऊपर नीचे नही झुकता है
दिवस कई बीत गये अन्न जल मैने नही पाया है
आखिर मानव ही हूूॅ कृष हो गयी सारी काया है
तारामती- स्वामी आप कुछ भी कहें मैं पथ विचलित नही हो सकती
अर्धांगिनी मै सत्यवादी की असत्यवादी नही बन सकती
स्वयं उठायें घट अपना मै करती अब प्रस्थान हॅू
बाट जोहती वहाॅ माता इस भय से मैं हल्कान हॅू
हरिष्चन्द्र- रानी तुम न थीं इतनी कठोर दिल खुष नारी थीं
चाहें जो भी रही हो परिस्थिति हार हाल हमारी थीं
विलम्ब अब बहुत हुआ जाना है मालिक मेरा है क्रूर
भाग्य देखिये हम सब का आज कितने हैं मजबूर
(युक्ति सारी विफल हुई घट न पाया संभाल धरा गिर टुकड़ा हुआ हरिष्चन्द्र का बुरा हाल)
डोम- डोम ने देखा घट टूटा क्रोध से वह पीला लाल हुआ
तमाचे पर तमाचे बिना गिने जडे़ हरिष्चन्द्र का बुरा हाल हुआ
कीमत घट की देगा कौन ऋण चुकता कैसे करायेगा
मारूॅंगा मै इतना अब तुमको छठी का दूध याद आ जायेगा
हरिष्चन्द्र- जब से आया द्वार तेरे खटा रहा शरीर बिना लिये आहार
घट तेरा जो टूट गया कर रहा तू मुझ पर प्रहार पर प्रहार
इन्सान हॅू कोई और नही पषु जैसा कयों कर रहा व्यवहार
गुलाम हॅू मैं तेरा चुकता कर दूॅगा धीरे धीरे सारा उधार
आपसे मुझे फिर कहना है काम मुझे कोई दीजिये और
अन्यथा अब बर्दाष्त नही आपके सामने दूॅगा जीवन छोड़
डोम- हरिष्चन्द्र अनजाने में मुझसे घोर अपराध हुआ
बात सही पहले बतलाते गुलाम पषु नही बोध हुआ
आज से यह काम बन्द शमषान घाट पर रहना तुम
आयेंगें जो वहाॅं शव कर टका सवा वसूलना तुम
काटा है सर्प ने
रोहित करे विलाप
माता आ बचा मुझे
करके शिव जाप
गया था चुनने पुष्प को उपवन में रोहित कुमार
नाग ने डस लिया पल में हर लिये उसके प्राण
आने में देख विलम्ब को तारा हुई अति परेषान
उपवन में जा पहुॅंची रोहित पड़ा था निष्प्राण
पछाड मार के गिर
पडी मच गया हा हा कार
गोद ले कर चल पड़ी करने अंतिम संस्कार
पास टका एक भी नही
जाने नही वो दस्तूर
रानी थी रहती
महलों में उसका क्या कसूर
घनी अँधेरी रात थी
हाथ को न सूझ रहा हाथ
सीने से चिपकाय थी
तारा पुत्र का न छूटे साथ
राज पाट सुख चैन
पति सब कभी का छूट गया
जीवन का था आखिरी
सहारा आज वो रूठ गया
चीर कर अँधेरा
रानी जलती चिता की ओर बढ़ी
कौन है कौन है की
आवाज सुन हो गयी वो खड़ी
कौन हो किस लिए
विचर रहे इस शमशान घाट में
राहगीर हो बताओ जान
लो मुर्दा फुंकता नही रात में
चौकीदार हूँ मै शमशान
का पहरा देता हूँ जाग कर
मुर्दा हो किसी का
भी जलने न दूँ लिए मैं बिना कर
मैं अभागिन वो
नारी हूँ लुट गया है जिसका संसार
पास मेरे कुछ शेष नही
कैसे निभाऊं में यहाँ व्यवहार
पौ फटनी शुरु हुई
छंटने लगा घना अन्धकार
कर चुकता सवा टका करो
फिर अंतिम संस्कार
सजल नयन अवरुद्ध
कंठ तारा कीन्ह मनुहार
दया करो हे
श्रेष्ठ जन जानहु तुम पीड़ा हमार
नही धन अब पास
मेरे तन और मन के सिवा
दासी हूँ जानत हैं
नगर के स्वामी नाथ शिवा
विपदा सारी सो
जानत हैं सब शिव शंकर जी हरी
मजबूरी मेरी है देखो मैं हूँ इस शमशान का प्रहरी
रानी थी कभी पर अब
कुछ न मेरे कुछ भी हाथ है
शिशु रोहित
अयोध्या का कुंवर ग्रसित सर्प घात है
हाल जान कर नारी
का प्रहरी हुआ अत्यंत विकल
देख सामने तारा को
गिर पड़ा था अब तक अटल
नाथ आप इस शमशान
में किस जीवन के हैं भोग
शरीर आपका जर्जर
हुआ बताएं लगे हैं कितने रोग
कर कफन लिए बगैर
जलने नही दिया जाय शव
आज्ञा मालिक की मेरे
भले ही खड़ा हो सामने रब
मालिक नही दास हूँ
धर्म है आज्ञा पालन करता हूँ
हारा नही जीवन में
कभी सत्य आचरण करता हूँ
पुत्र हो सामने या
हो पत्नी मर्यादा न दूँ में बिकनी
आफत जितनी आयें सत्य
के आगे कभी न टिकनी
मानते नही प्रहरी
सुनो फिर तुम ये अंतिम बात है
देने को सवा टका
कर नही शरीर पर आंचल मात्र है
देती हूँ तुम्हें
चीर चीर कर दिल जज्बात साथ में
करने दो
अंत्येष्टि पुत्र की अब शेष न कुछ हाथ में
फाड़ा चीर तारा ने दिया
जब कफन प्रहरी के हाथ में
फट गया कलेजा माँ बाप
का थर्राया त्रिलोक साथ में
खेल मुनियों का
देख कर क्रोध जागा त्रिलोकी नाथ में
छोड़ आसन चले
क्षीरसागर से श्री विष्णु सत्य नारायण
थम गयी गति प्रक्रति
की सूर्य थमे उत्तरायण दक्षिणायण
देख दशा राजा
हरिश्चंद की भगवान हुए अति हैरान
विश्व मित्र जो हो
मुनि कैसे बन बैठा इतना नादान
देख सामने नारायण को
खड़ा राजा दोनों जोड़े हाथ
परीक्षा में असफल
हुआ तो ले लीजिये अब मेरा माथ
विश्वामित्र राजन में प्रसन्न हूँ तुम सत्यवादी
अयोध्यापति जाबांज
धन संपदा परिवार सहित वापस
निष्कंटक करहु राज
विश्वामित्र राजन में प्रसन्न हूँ तुम सत्यवादी
अयोध्यापति जाबांज
धन संपदा परिवार सहित वापस
निष्कंटक करहु राज
हरिश्चन्द्र - अब प्र्रभु प्रसन्न क्यों हुएए पहले थे
क्यों नाराज
सत्यवादी हरिष्चन्द्र जबए कर रहा था सब काज
कौन था इसके पीछेए किसको मिलना था लाभ
आप भी कान के कच्चे ए बोलिये क्यों बने महाराज
भरोसा नही जब खुद पर था
क्यों नाप रहे थे मुझे बेमाप
विश्वामित्र - राजन
सुनो देवेन्द्र ईष्र्या भराए नित
करता था संताप
ऋषि मुनि बुलाकर ऋषि मुनि बुलाकर
कहता करने को पाप
निवेदन करता हूँ मुनिवर ऐसी
परीक्षा किसी की अब न लेना
सत्य राह चलने वालो को अपना आशीष
आप सदा ही देना
रोहित पुत्र जीवित है ये माया की
बलिहारी
सत्य तुम्हारी शरण रहेगा ये आशीष
हमारी
राज पाट धन सम्पदा सब करता अब वापस
युगों युगों तक फ्हरेगी सत्य पताका तुम्हारी
सत्यनारायण प्रसन्न हुए करुना निधि बोले दयानिधान
वर माँगो दूँ अभी सूर्य वंश की हो शान
पुत्र बने अयोध्यापति हम जन को दें विश्राम
एवमस्तु दोनों चले विष्णु लोक उड़ विमान
सत्यमेव जयते
सो रहा एक जीवन यहाॅं रो रहा एक जीवन यहाॅं
भाग्य का यही खेला क्या करेगा मौला
अब प्र्रभु प्रसन्न क्यों हुए
पहले थे क्यों नाराज
सत्यवादी हरिष्चन्द्र जब
कर रहा था सब काज
कौन था इसके पीछे
किसको मिलना था लाभ
आप भी कान के कच्चे
बोलिये क्यों बने महाराज
भरोसा नही जब खुद पर था
क्यों नाप रहे थे मुझे बेमाप
राजन सुनो देवेन्द्र ईष्र्या भरा
नित करता था संताप
ऋषि मुनि बुलाकर
कहता करने को पाप
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