Saturday 11 August 2018

नारी 

बटोरे सपने आँखों में
घरोंदे बनाये रेत में
दोनो ही नही शेष रहे
उड़ती धूल शमसान से

बून्द बून्द से ये घट भरा
रक्त दे किया इसको हरा
नारी जननी जहान की
पी रही घूँट अपमान की
संस्कार न अवशेष रहे
महरूम हुई मुस्कान से

लिंग भेद में इतनी सनी
स्वयं से स्वयं में है तनी
कुल्हाड़ी मारती पैर मे
बहूं से सास जब वो बनी
किस मुगालते में जी रहे
ग़ाफ़िल क्यों है अंजाम से

चीखती नारी जब सस्वर
कैद क्यों हूँ अपने ही घर
उड़ना चाहे आसमान
रोकता कौन उसकी डगर
पतंग संग डोर सी रहे
जी रही आज भी शान से

आत्मनन्द

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