नारी
बटोरे सपने आँखों में
घरोंदे बनाये रेत में
दोनो ही नही शेष रहे
उड़ती धूल शमसान से
बून्द बून्द से ये घट भरा
रक्त दे किया इसको हरा
नारी जननी जहान की
पी रही घूँट अपमान की
संस्कार न अवशेष रहे
महरूम हुई मुस्कान से
लिंग भेद में इतनी सनी
स्वयं से स्वयं में है तनी
कुल्हाड़ी मारती पैर मे
बहूं से सास जब वो बनी
किस मुगालते में जी रहे
ग़ाफ़िल क्यों है अंजाम से
चीखती नारी जब सस्वर
कैद क्यों हूँ अपने ही घर
उड़ना चाहे आसमान
रोकता कौन उसकी डगर
पतंग संग डोर सी रहे
जी रही आज भी शान से
आत्मनन्द
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