Friday 15 August 2014

भारत किस दिशा में ?

भारत किस दिशा में ?
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भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, यहाँ सभी धर्मों के लोग अपनी अपनी धार्मिक, सामाजिक , परम्पराओं के साथ स्वतंत्र रूप से रहते हैं और उन्हें भारतीय संविधान के तहत सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाएँ बगैर किसी भेद भाव के प्राप्त हैं. भारत में एक जगह से दूसरी जगह जाने की पूर्ण आजादी है. सामान्य परिस्थितियों में सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के धर्म को सम्मान देते हैं. एक दूसरे के तीज त्यौहार आपस में मिल बगैर वैमनस्य के मानते हैं. इसको प्रत्येक भारतवासी जनता है और मानता है और शांति पूर्ण जीवन जीना चाहता है.
जहाँ तक मैं समझता हूँ राजनीति भी एक धर्म है. धर्म कोई भी हो वह सदैव श्रेष्ठ होता है. उसमे किसी भी प्रकार की न तो कोई कमी होती है और न ही निकाली जा सकती है. और न ही निकालना चाहिए . यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस धर्म की दुहाई देकर उसके क्रियान्वयन , अनुकरण एवं अनुसरण को लेकर विवाद होते हैं क्या उस धर्म के सिद्धांतों , शिक्षाओं , कथाओं एवं उसके मर्म से उनके अनुयायी भली प्रकार से भिज्ञ हैं. मुझे ऐसा नहीं लगता कि वे भिज्ञ हैं. अगर वास्तविक रूप से यदि उनमें अपने धर्म के प्रति सच्ची निष्ठां होती, उनके मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी होती तो जिस प्रकार से कुछ मुट्ठी भर लोग चाहें किसी धर्म या सम्प्रदाय के हों का जो आचरण परिलक्षित हुआ है और समय समय पर इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है , कदापि प्रदर्शित न होती.
इसका मुख्य कारण मैं अशिक्षित होना मानता हूँ. ऐसा नहीं है कि अशिक्षित व्यक्ति या कम पढ़ा लिखा व्यक्ति अपने धर्म के बारे में न जानता हो और तदनुसार पालन न करता हो वे भी धर्म कि अवधारणा से भ्रमित नहीं होते हैं, परन्तु सभ्य समाज के शिक्षित वर्ग ऐसा आचरण करे तो निश्चय ही चिंता का विषय है. यह सर्विदित है कि किसी भी धर्म के शास्त्रों का यदि विधिवत अध्ययन किया जाये परन्तु उसकी सम्पूर्ण व्याख्या में कोई भी व्यक्ति अपने को पारंगत एवं पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता . परन्तु मैं तो अपने बारे मैं ऐसी ही धारणा रखता हूँ. जो सत्य भी है. क्यों कि एक ही शब्द, वाक्य इत्यादि के कई कई अर्थ, भाव और व्याख्याएँ विद्वानों द्वारा की जाती हैं और वे सटीक होती हैं. सामान्य जन उन्हें पढ़ सकता है, समझ सकता है, दूसरों को उपदेश भी दे सकता है. लोग उसको सुनकर अनुकरण एवं अनुसरण भी करते हैं पर कितने लोग उसके वास्तविक मर्म को समझ कर पालन करते हैं.
किसी भी धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है . जबरन धर्मान्तरण का आदेश नहीं है. दूसरे की भावनाओं को आहत करने का निर्देश नहीं है. सामान्यतयः ऐसा होता भी नहीं है. न जाने क्यों लोग धार्मिक भावनाओं को उभार कर धर्म के नाम पर अपने धर्म को कलंकित करते हैं. इंसानियत का पाठ दूसरे को पढ़ाते हैं अपने लिए क्यों नहीं. निरीह नागरिकों की शांति क्यों भंग करते हैं , उनके जान माल के लिए क्यों खतरा बनते हैं. क्या धर्म इतना कमजोर है. ये कांच की चूड़ी तो नहीं. अगर कमजोर नहीं है तो भय किस बात का . लोगों को अपने विचार शालीनता से प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता है. विचारों के समक्ष , विचार रखें. घ्रणा क्यों? हिंसा क्यों?
वर्तमान में भारत का जन मानस चिंताग्रस्त है. महंगाई , भ्रष्टाचार से त्रस्त है. साथ ही धार्मिक कट्टरता का प्रदर्शन चरम सीमा पर है. जो धर्म निरपेक्ष एवं लोकतान्त्रिक देश के लिए शुभ संकेत नहीं है. और इसके विरुद्ध आवाज उठाने एवं द्रढ़तापूर्वक शमन किये जाने का दायित्व किसका है यह बताने की जरूरत है क्या. सर्वोच्च पदों पर आसीन महानुभाव अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए संवैधानिक व्यवस्था की उपेक्षा कर उस दिशा की ओर जा रहे हैं जो भारत की आजादी के समय तुष्टिकरण की नीति अपना कर पैदा की थी. जिसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ी. क्या आज भारत का भाग्य भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों एवं कर्तव्यों के दिशा निर्देशों द्वारा सुधारा जायेगा या अस्वस्थ मानसिकता वाले चन्द लोगों द्वारा.
जैसे हालात देश के हैं और ऐसे ही रहे , सकारात्मक सोच के साथ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है न की कोई अन्य मार्ग अपनाकर राष्ट्र की अस्मिता, अखंडता पर घात सहने की. धर्म के नाम पर तो देश को एक बार बाँट ही दिया, फिर जाति और वर्ग के नाम. सीमाओं में बाँटने का खेल जारी है , जैसे प्रकरण सामने आ रहे हैं और समर्थन परोक्ष , अपरोक्ष रूप में दिया जा रहा है उससे आभास हो रहा है कि फिर देश को एक बार वैसी स्थिति से न गुजरना पड़े जिससे वह कई साल पहले गुजर चुका है.
राष्ट्र में जब जब शांति छा जाती है तो फिर अस्थिरता पैदा कर दी जाती है. मात्र अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए. यह महात्मा गाँधी जी का देश है. शांति , अहिंसा धर्म का पालन करने वाला राष्ट्र है. उस राष्ट्र में कट्टर विचार धारा का स्थान क्यों, संरक्षण क्यों, किसके लिए. गाँधी जी की अवधारणा कि पाप से घ्रणा करो पापी से नहीं. गाँधी दर्शन कि दुहाई देने वाले उनके सिद्धांतों से आज विमुख क्यों हैं.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

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