Friday 15 August 2014

भ्रष्टाचार- आम आदमी क्या करे

भ्रष्टाचार- आम आदमी क्या करे
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जाड़े की रात है . बाहर तेज हवा चल रही है. कमरे की टूटी खिड़की से अन्दर आती हवा कमरे की दीवार पर टंगे कैलेण्डर को झूला झुला रही है और खर्र खर्र की आवाज रात्रि के सन्नाटे को भंग करती हुई अपनी लय ताल का आनंद ले रही है. मैं अपनी टूटी हुई खाट जो मेरे बोझ से दब कर लगभग जमीन को छू रही है, पर कथरी ओढ़े बैठा हूँ. मेरे पैरों के बीच, मेरा कुत्ता भोलू भी सिमटा हुआ मजे से सो रहा है. उसके शरीर की गर्मी मेरी सर्दी के अहसास को कम करते हुए एक अजीब सा सुखद आनंद दे रही है, मेरी पत्नी बच्चों के साथ पास ही जमीन में पुआल के बिस्तर पर सिकुड़ी हुई पुआल ढंके सो रही है.
सर्दी के प्रकोप से मुझे खांसी है, है तो मौसमी खांसी पर तकलीफ देह है. खांसी ही क्या हमारे जैसे लोगों के लिए कौन सी ऐसी चीज है जो तकलीफ देह न हो. वैसे भी इस देश में जो हो रहा है उसके अतिरिक्त दो जून की रोटी की व्यवस्था की चिंता, साथ ही कमर तोड़ती महंगाई और न जाने क्या-क्या , सम्बन्धी विचार मन में आने जाने के कारण नींद या तो जल्दी आती नहीं है अगर किसी प्रकार आ भी गई तो ये जानलेवा खांसी खाट पर उठा कर बिठा देती है.
मैं कोई बुद्धिजीवी वर्ग का सदस्य तो हूँ नहीं की देश के हालातके विषय में चिंतन कर सकूं, कहीं समाज में अपने विचार व्यक्त कर सकूं . मैं भारत का एक निरीह आम नागरिक हूँ. मुझे जिन लोगों के बीच रहना है और सुरक्षित रहना है तो कुछ कह भी तो नहीं सकता.
आप कहेंगे कि आवाज उठाओ, अपने विवेक का प्रयोग करो, खुद जगोगे तभी सवेरा होगा, तुम्हारा विकास होगा. मैं कहता हूँ कि मैं कोई अकेला नहीं, मेरे जैसे करोड़ो हैं, वे भी इन्ही हालातों में जी रहे हैं. आवाज तो नहीं उठा पा रहे हैं , पर क्या उनके कराहने कि आवाज, बच्चों का रुदन, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण उनको दिखाई सुनाई नहीं देता जो हमारे रहनुमा हैं, भाग्य विधाता हैं.
पर क्या करूँ हूं तो फिलहाल मैं आदमी . चाहें मेरी स्थिति का स्तर कोई भी हो. मुझे भी भूख लगती है. अपने परिवार के पालन पोषण , बच्चों कि शिक्षा , इलाज, तमाम जीवन कि बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सीमित संसाधनों के बीच योजना बनानी पड़ती है.
वर्तमान व्यवस्था में ही तो जीना है . खाट तो मेरे आर्थिक जर्जर दशा और बोझ के कारण दबी है परन्तु भारत के आम नागरिक की स्थिति भी मुझ से भिन्न नहीं दिखती, वे भी दबे हुए हैं. मैंने किसी से सुना है कि जितनी ताकत से किसी चीज को दबाया जाए तो उतनी ताकत उस पर भी वापस लगती है. पर ये चेतना कब जाग्रत होगी, कब अपने विकास के बारे में लोग जागरूक होंगे, कब उछाल आएगा, कब हमारी दशा सुधरेगी. मुझ जैसे लोगों कि संख्या लाखों में नहीं करोड़ो में है.
मेरी फटी कथरी से कहीं कहीं हवा चाहें जैसी हो , शरीर को छू तो जाती है, शरीर के अंगों को पूरी तरह छिपाने में असमर्थ है पर उस चादर का क्या किया जाए जो न तो जीने देती है और न मरने देती है. भ्रष्टाचार की चादर अब शिष्टाचार की चादर है जो पूरे भारत को ढंके है और हम जैसे निरीह प्राणियों के लिए कफ़न है. तकनीकी रूप से सांसें चल तो रही हैं , जिन्दा की श्रेणी में गणना है पर आत्मा छटपटा रही है.
न जाने भारत की राजनीती में कब सुधार होगा, क्या सुधार होगा, कौन सुधार करेगा. किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है. जब पूरा देश अपने अपने हितों के लिए राजनीती कर रहा है, तो स्पष्ट सोच के आधार पर राष्ट्र हित और संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के निष्ठां पूर्वक लागू कराये जाने के लिए, कौन नायक बनेगा.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

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